Monday, October 19, 2015

सृजन का सच

घनघोर असंतुष्टि,
अतृप्ति 
और महसूस किये
किसी अव्यक्त दर्द से
पैदा होते हैं
कुछ बेतरतीब से शब्द,
जो कुछ ऊटपटांग से वाक्यों का
लिबास पहन बन जाते हैं
महसूसियत के फरमान।

और दिखने लगते हैं
कुछ-कुछ कविता जैसे
जिन्हें पढ़-लिख, सुन-सुना
करने लगता हूँ मैं गुमान
खुद के शायर होने का,
और भ्रम के किसी 
खयाली आकाश में
हो जाता हूँ तृप्त
कागज़ों से अपने ज़ख्म पोंछकर।

किंतु ये सृजन का भ्रम
बस चंद लम्हों के लिये ही
मेरी तृष्णा को दुलारता है
और फिर यथार्थ का कड़वा सच
कर देता है मेरे ज़ख्मों को हरा
जिससे प्रेरित हो 
कर बैठता हूँ मैं
पुनः एक और 
'सृजन'

अतीत के असंख्य अहसासों
और उनसे पैदा
इन फजूल के अल्फाजों की
भूलभूलैया में
उलझा हुआ
मैं अपना वर्तमान नहीं
सुलझा पाता।

उन ज़ंग लगे जज़्बात से
भले हो रहा है
'सृजन'।
पर
अवरुद्ध इसने कर दिया
स्वयं का निर्माण
अब।

गौर से देखो
तो जरा!
असल में
इस बंजर भूमि पे पड़े
'अंकुर' से
नहीं निकलती कोई
सृजन की पौध।

Tuesday, September 1, 2015

बेरहम बरखा

उस बाग को खुदवाकर मैंनें
धंस दिया था गहरे तक
ईंट का चूरा
और फिरवाकर रोलर
कई मर्तबा
बना दिया था सपाट, बंजर
उस जमीं को..
जहाँ खिला करती थीं
तेरी चाहतों की कली कभी,
तेरी ख़्वाहिश और नुमाइश
की फुलवारी।



पर इस घिर आई घटा ने
बरखे बदरा ने
फेर दिया पानी
मेरी उन तमाम कोशिशों पे।

लो
फिर उग आई उस ज़मीं पे
तेरी यादों की दूर्वाएं,
टरटराने लगे
बगिया की उजड़ी पड़ी बागड़ में
उन की हुई बातों के 
असंख्य मेंढक
और
लगे हैं निकलने
बारिश में भीगे 
वे बीते लम्हों के
कीट पतंगे।

ये बारिश
भले बुझा रही है सैंकड़ों की तपन
पर मेरी रूह को
कतरा-कतरा जलाते है
इन गिरी हुई बूंदों के नाजुक छींटे।
ये बूंदें
दिल की सुर्ख ज़मीं पे गिर
उड़ा रही हैं बेवशी की सौंधी खुशबू
कर रखा है बेचैन
इन रुसवाईयों के कुकुरमुत्तों ने।

अरे! आना है तो आये न,
पर कमबख़्त ये बारिश
अकेली क्युं नहीं आती....

Friday, June 19, 2015

अव्यक्त की अभिव्यक्ति !!!

तप्त दुपहरी के बीच
ज्यों होती है तरुओं की
सुनहरी छांव।
भटका राही 
लंबी दूरी तय कर
पा लेवे ज्यों अपना गांव।। 

अथाह मरुस्थल में हो
ज्यों
भरा नीर का कुण्ड।
अथवा
किसी अनजान सफर पर
मिले अपनो का झुण्ड।।


ये सब वे चीज़ें हैं
जिनका लगता न 
कभी भी मोल
चमक नहीं, चाहत ही बस
तय करती इनका तौल।

बीच समंदर मिले थे तुम
बनकर के कोई द्वीप।
था संयोग अजब ये वैसा
मानो स्वाति में मिला
बूंद को सीप।

फिर निष्कंट राह में जाने
आयी कैसी ये विष बेल।
उड़ा ले गई मुझसे मेरा सब
क्या अजब ये कुदरत का खेल।।

कभी धूप-कभी छाया
क्या ऐसी ही जीवन की रीत।
क्युं वीराने में खो जाते
कभी महफिलों में गूंजे 
जो गीत।

हुई उपेक्षा उस अंचल में,
उम्मीद के थे जहाँ
खड़े किले।
मिला अंधेरा उन गलियों में
जहां प्रेम के 
दिये जलें।।

दूर सभी हों हसरत मेरी
हो न संग की अब ख्वाहिश।
वीतराग होकर वसुधा पे
न चाहूं कोई फरमाईश।।

हो उदार-निरपेक्ष वृत्ति बस
करुं स्वयं का आलोचन।
दिखे दोष अन्यत्र कहीं न
यही एक बस आलापन।।

तुम थे, तो ही सुख था
मृगतृष्णा हो मेरी ये दूर।
थमे खोज जगविषयों की अब
न होना ही चाहूँ 
 मशहूर।।

थमे  गीत-थमे हर कविता
अव्यक्त रहूं निष्चेष्ट सदा।
स्वस्वरूप में थिर होकर
लौटूं न जगत में कहीं-कदा।।
लौटूं न जगत में कहीं-कदा.....

Saturday, May 9, 2015

माँ

चित्र- गुगल से साभार

अपने छिले हुए घुटनों को देख
अब भी
बढ़ जाती है चाहत, 
उन गुजरे रास्तों पे लौटने की..
या फिर उन्हीं रास्तों पर किसी  जानवर को देख, 
होती है ख्वाहिश
कि पकड़लूं पल्लु जोर से एक मर्तबा फिर...
चाहता हूं उम्र के उस दौर में जाना
जहाँ टूटे खिलौनों पर, उजड़े  बिछौनों पर
बिजली चमकने पर या बादल गरजने पर
तुम बड़ी आसानी से कह देती थी
'कुछ नहीं हुआ'

और उस बात को सच मान
बड़ी से बड़ी आफत भी 
मुझे बौनी जान पड़ती थी..
अब भी सपनों के टूटन से, 
अपनों की रूठन पर
आँसू बहाने या किसी के सताने पर
मुझे उसी उंगली और 
मासूम थप्पी की ज़रूरत होती है
पर अफसोस
इन बचकानी हरकतों को
जमाना कहता है नासमझी मेरी
और बस इस लिये अब कुटिल, झूठा और कठोर हो 
मैं छुपा लेता हूं अपनी तमाम हसरतें

'माँ'...
मैं कुछ कहूँ या नहीं,
पर अब भी तेरी ज़रूरत 
जस की तस बनी है मेरे जीवन में।।।

Saturday, April 18, 2015

वो बिखरा आशियां !!! (50 वी पोस्ट)

उस रोज़
शायद कुछ यही तिथि होगी
जब हमने-तुमने की थी
अपने सुर्ख जज़्बात की रज़ामंदियां
और साथ ही हुई थी शुरुआत
उन सपनों के घरोंदो पर
दीवारें बनाने की।

और तकरीबन कर ही ली थी
कोशिश पूरी
उस तामीर को आशियां बनाने की
पर इससे पहले
कि डलती उसपे छत
कुछ समझौतों
रिवाज़ों
और कौमी फरमानों की...
ढह गई वो इमारत!
वर्ग-बिरादरी
और कुछ मिथ्या रस्मों की
आंधियों में।

हमारे कसमों-वादों
और अनगिनत अहसासों
का वो मिट्टी-गारा
अब भी वहीं पड़ा है
ज़मीं पर होकर भी
ज़मींदोज होने के इंतज़ार में।


और मैं, 
उस न बन सके आशियाने 
को जब भी देखता हूँ
उस रास्ते से गुज़रते हुए,
बस इक यही ख़याल आता है
कि ये क्या हो सकता था
और क्या हो गया।

तुम और मैं
अब भी जब-तब
उन आंधियों को ही
जिम्मेदार कहते हैं
उस बिखरे भवन के लिये..
बिना ये देखे-बिना ये जाने
कि
नींव हमारी ही कमज़ोर थी।


कहने को 
तेरी-मेरी अपनी ही दुनिया
अपना ही आशियां
और उसपे एक मजबूत छत है
पर उस भवन में
जाने क्युं?
मैं 'तुझे'
और तू 'मूझे'
ढूंढता है।

Tuesday, April 14, 2015

मुआवजा

उम्मीदों की चट्टान पर 
जब निष्ठुर हो
पड़ती हैं हालातों की बौछारें..
तो कतरा-कतरा
महीन हो
छलनी होता है सीना
हर उस किसान का,
जो अपने खून-पसीने से
उजाड़ पर भी पहना देता है
हरी चुनरिया।
कुछ वैसे ही
जैसे एक लाचार सपूत
अरसे की मेहनत के बाद
लाता है शहर से नई साड़ी
पहनाने को अपनी मां के
दुर्बल-विक्षिप्त बदन पे।

किंतु 
कोई पुरुष अथवा प्रकृति ही
हर ले चीर उस बूढ़ी औरत का
और बनाकर नंगा कर दे मजबूर
सहने उसे सर्दी-गर्मी, 
बारिश या चिलचिलाती धूप।
तो कसम से!
माँ से ज्यादा दर्द
उस पुत्र को होता है
जिसने अपनी संपूर्ण क्षमता से
की थी कोशिश मां के आंचल को
आवरण देने की।

किसान!
एक ऐसा ही पुत्र है
जो अपने समस्त
बल-बुद्धि और वक्त को लगा 
करता है कोशिश
इस धरा की गोद भरी रखने की
और अपने साथ मानवमात्र
के जीवन को संजोने की। 
किंतु कभी बेमौसम बारिश
कभी सूखा तो कभी कुछ और...
उसकी तमाम ख्वाहिशों को 
मेट देते हैं।

और जब अपने सर्वस्व के साथ
चित्र- गूगल से साभार
उम्मीदें भी हो जाती है दफ़न
तो खुशी के नहीं, 
सिर्फ खुदकुशी के रास्ते बाकी रह जाते हैं।
और फिर 
एक किसान की मौत पे
अनाथ बच्चे
विधवा बीवी
टूटे घर
असीम कर्ज
और उस उजड़े घर के
दर्जनों भूखे पेटों के लिये
मिलता है 'मुआवज़ा'
एक-दो या पांच लाख का।

कमाल है! ज़िंदगी
तो बड़ी सस्ती चीज़ है
वो मूर्ख किसान फज़ूल में
ही इतनी मेहनत करता था।

Sunday, March 8, 2015

औरत होने के मायने


उसने की जब-जब भी
इश्क़ की हसरतें मुझसे
मैंने बचकानी हरकतें बता

उन्हें धुतकार दिया।
उसने की जब-जब 
ख़्वाहिशें कहीं जाने की 
कुछ पाने की
मैंने बेहुदा जिद कह
उन्हें नकार दिया।
कभी रूठी वो मुझसे
तो कहा नखरा है ये
कभी मान गयी खुद ही
तो कहा स्वारथ छुपा है कोई।
और जब नहीं रही
कोई हसरत-जिद या ख़्वाहिश 
उसकी,
और कह गई अलविदा चुपचाप
मेरी ज़िंदगी से
तो उसकी इस अदा को कहा
बेवफाई मैंने।

हर वक्त ही तो मैं सही 
और गलत रही है, वो औरत!
कभी छोड़े चुटकुले उसपर
तो कभी बेबाकी से गाली देदी।
गालियों का लेन-देन कर रहे थे पुरुष
पर वहाँ भी बीच में थी
माँ-बहन या बेटी।

हाँ! कुछ वक्त के लिये
की थी मैंने भी मिन्नतें उससे।
जब महज़ जिस्म की आस में
किया होगा प्रेम का इज़हार...
पर इकरार-ए-इश्क के बाद
कहते हैं प्रेम किसे?
असल मायनों में सिखाया
मुझे उसने।

उसका हर इक करम
मुझे तिरियाचरित्तर लगा
पर उसका ये चरित्र
है किसके लिये 
मैं ऐसा कभी न समझ सका।
औरत कभी खुद के लिये नहीं जीती
उसके 'स्व' में वो अकेली नहीं होती।
गर इतनी सी बात मैं समझ गया होता
तो उसके दिल पे यूँ घाव न करता
भले छिन जाता मुझसे मेरा कुछ
पर उसके लिये मैं पुरुष जैसा बर्ताव न करता।

पर ऐसा हो न सका..
मैं आँखों में क्रोध लिये
एक कमजोर पुरुष रहा..
और 
वो आँखों में आंसू लिये
हमेशा एक मजबूत औरत।

अफसोस! मैं औरत न बन सका..
इस धरा के जिन परमाणुओं से
बनती है औरत,
वो परमाणु बस उतने ही हैं 
और न हो सकता है उनसे
कभी किसी पुरुष का निर्माण।

गर कभी-किसी रोज-कहीं पर
पा लिये मैंने थोड़े से गुण 
उस औरत के
तो मैं महज़ इंसान नहीं रह जाउंगा...
 उठ जाऊंगा
इंसानियत की ज़मीं से बहुत ऊपर।

(*विश्व की तमाम माँ-बहन-बेटी-पत्नी और महिलामित्रों को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शुभकामनाएं)

Saturday, February 14, 2015

कुछ...'बेनाम' सा!!!

(*कविता तो ये भी नहीं है। ये है ख़यालों की अलमारी में रखा, लफ्ज़ों का इक मुरझा चुका गुलदस्ता... हालातों के चलते जिस पर वक़्त की सीड़न पड़ गई थी.. आज मौका पा वो अपनी महक बिखेरने की ख़्वाहिश कर रहा है। आखिर प्रेम दिवस जो है। शायद कभी, इस जैसे ही किसी दिन लिखे गये ये अल्फाज़.. अब मेरे तो किसी काम के नहीं रह गये हैं... इसलिये सोचा कि इन्हें बंद दरख़्तों से निकाल.. आरजूओं का नयाँ आसमां दे दूं। जो मेरे न सही, किसी और के अरमानों को ही पूरा कर सकें तो मुझे खुशी होगी। इस कविता जैसे लगने वाली प्रस्तुति में अल्फाज़ तो तनिक भी नहीं है.. पर अहसासों का अथाह समंदर समाया है। इसे क्या नाम दूं.. सोचना मुश्किल है क्युंकि कोई भी नाम इसे बयाँ कर पाने की ताकत नहीं रखता... ये कुछ है पर क्या, इसका फैसला आप ही करें। मेरे लिये तो ये बस कुछ...... ही है। पाश्चात्य संस्कृति प्रदत्त प्रेम दिवस की शुभकामनाओं के साथ...... प्रस्तुत है कुछ 'बेनाम' सा... )

चंदा को क्या ललकार सकें, टिम-टिम करके लाखों तारे।
सूरज की चमक क्या कम होगी, गर चमक उठे जुगनू सारे।।
माना कि लोग हज़ारों है, जो बिखरे हैं इस महफिल में।
पर बोलो कितने लोगों की, है हस्ती इस नाजुक दिल में।।
क्या कोई कभी भी गिन पाये, जज़्बात उठे कितने मन में,
फिर बोलो कैसे कह दें, कितना प्यार भरा इस धड़कन में।।1।।

दरिया  में  उठती लहरों  की,  भले तादात हज़ारों हो।
पर कितनी लहरें  दरिया की, छू पाती दूर किनारों को।।
यूं तो  हमने  भी जीवन में,  कई रिश्ते खैरात में पाये हैं।
पर बोलो कितने उन रिश्तों में, दिल की दहलीज़ तक आये हैं।।
क्या कोई नाप सके शुचिता, कितनी त्रिवेणी के संगम में,
फिर बोलो कैसे कह दें,  कितना प्यार भरा इस धड़कन में।।2।।

न वादा ये मेरे रिश्ते का, तुमसे न कभी तकरार करुं।
या न झगड़ूं या न उलझूं, या ख़्वाहिश पे न इंकार करुं।।
इन उलझन या विपदाओं से, न प्यार कभी भी झुक पाये।
गर मेघ घटा रवि को घेरे, न उससे दिनकर बुझ जाये।।
श्रद्धा के कितने सुमनांकुर, होते हैं पूजा में अर्पण,
फिर बोलो कैसे कह दे, कितना चाहे तुमको ये धड़कन।।3।।

अंखियों से बहते आंसू न कभी, तय करते दर्द का पैमाना।
मदहोशी कितनी है मधू में, ये जाने कभी न मयखाना।।
है थाह समंदर की कितनी, क्या अब तक जान सका दरिया।
महके कितनी है फुलवारी, क्या बतला सकती है बगिया।।
लाचार सभी हैं अपने में, जो कर पायें खुद का वर्णन,
फिर बोलो कैसे कह दें, कितना चाहे तुमको ये धड़कन।।4।।
फिर बोलो कैसे कह दें...................

-अंश

Friday, January 30, 2015

वो ठहरे हुए पल.....

उस शहर की
भागमभाग भरी गलियों से
अब भी
जब कभी भी गुजरता हूँ मैं
मुझे तू उसी तरह
खड़ा मिलता है
किसी पेड़ की छांव के नीचे
मेरे इंतज़ार में ।

बाकायदा
किसी भटके राही के जैसे
अपने एक हाथ से
धूप को रोकता हुआ
अंखियों के ऊपर
माथे के तनिक नीचे 
मेरे इंतजा़र में।

वो कुल्फी का ठेला
वो वर्फ का गोला
वो आधा सिका हुआ होला,
अब भी वहीं पड़ा है...
जो मुझे खिलाने के चक्कर में
गिर गया था 
तेरे हाथ से छिटककर
उस सड़क के किनारे।

कुछ ऐसे ही
वो तेरा अधूरा श्रंगार
लवों पे बिखरा प्यार
घड़ी में बजते चार
और फिर
आने वाले कल का इंतज़ार
जस के तस चस्पा हैं
वैसे ही
किसी फ्रेम में जड़ी 
तस्वीर की तरह।

हाँ,
अब उस सड़क पे
पहले के बनिस्बत
भीड़ तनिक ज्यादा हो गई है
पर उस भरी भीड़ के बीच भी
मैं तुझे
न होते हुए भी 
देख लेता हूं।

सोचो तो,
इक अरसा बीत गया है
पर कुछ दीवानगी सी
अब भी बाकी है
जो झुठलाती है इस बात को
कि 'वक्त गुज़र जाता है'।
कतरा-कतरा
दिन-महीने-साल 
गुजरने के बाद भी
'वो ठहरे हुए पल'
वैसे ही खड़े हैं
बेशर्मों की तरह
इक अनहोनी को
मुमकिन करने के इंतज़ार में।

तू बढ़ रही है
मैं बढ़ रहा हूँ
पर
'वो पल'
साफ इंकार कर रहे हैं
आगे बढ़ने से।
अब करें भी क्या?
वो तुम्हारी-हमारी
तरह अक्लमंद थोड़े ही हैं
उन्हें देखना ही नहीं आता
धर्म-जाति-वर्ग-बिरादरी
की सरहदों को।

Tuesday, January 13, 2015

कविता नहीं है ये

इन पन्नों पे
बिखरे पड़े ये अल्फाज़
जिन्हें तुम शायरी 
समझ
मेरी तारीफ में
क़सीदे गढ़ते हो...
शायरी नहीं है ये,
ये तो हैं वो रिसते 
हुए ज़ख्म
जिसे पोंछा था
मैंने कागज़ों से।

ये जिन गीतों
को सुन
बताते हो मुझे
तुम,
प्रवर्तक कोई
साहित्य की दिव्य 
प्रथा का...
गीत नहीं हैं ये,
ये तो हैं वो
सिसकियां
जो अक्सर
मचाती हैं शोर
उदास पड़े वीरानों में।

इन हाथों से लिखी
वो हर इक इबारत
जो करती थी पैदा
गुमान,
तुममें भी मेरी
होशियारी का...
क़सम से!
वो इबारतें
नहीं हैं प्रतीक,
किसी
तीक्ष्ण प्रज्ञा का।
बस छींटे हैं वो
उस कलम की स्याही के
जिसे आंसुओं की 
दावात में डुबो के
भरा था मैंने।

अच्छा ये नहीं,
कि निकल जाती है
पीड़ा,
इन अल्फाज़ों से...
अच्छा  तो तब होता
जब कोई पीड़ा ही
 न होती।
यकीन मानो!
इन गीतों, मिसरों
और कविताओं
पे बजने वाली
तालियां,
रूह के सन्नाटों
को और गहरा ही बनाती हैं।

Thursday, January 1, 2015

बीते तो हम है..साल नहीं !

आंसू,
आंख से निकल चुकने 
के बाद भी
ज़िंदा रहते हैं
कुछ वक्त
सीलन लिये
कोमल कपोलो पर।

ज़ख्म,
भर चुकने के बाद भी
रिस उठते है
कई मर्तबा फिर
ठेस
तनिक सी खाने पर।

और वो तूफाँ,
गुज़र जाने के बाद भी
देता है
अपना परिचय
खुद के बनाये
उजाड़ के ज़रिये।

कहो तो ज़रा!
है भला कौन?
जो असल में
बीत पीता है..
खुद के 
बीत जाने के बाद।

ये ऋतुएं,
ये दिन-ये रात,

ये रोशन फिज़ाएं।
ये ग़म-ये खुशियां
ये चंचल अदायें...
सब कुछ,
फिर-फिर तो लौट
आते हैं
जाने के बाद।

तो आखिर!
करें ग़म जाने का 
किसके?
और
आने पे किसके हम
करें रोशन समां?
सब ही तो
आके जाते हैं
और जाकर
फिर लौट आते हैं।
गर न लौटे तब भी वे
यादों में खिलखिलाते हैं।

तो कहो न!
बीता है आखिर कौन?
क्या 2014?
नहीं..कतई नहीं,
वो तो अब भी
रूह की दीवार में ठुकी
स्मृतियों की कील पे
बाक़ायदा टंगा है।
हाँ...
कुछ वरक़ मेरे ही
पलट गये हैं।
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