Saturday, January 5, 2019

बगल वाली सीट

क्लासरूम में
अर्थशास्त्र की शायद उस
कक्षा के बीच
खाली पड़ी अपनी बैंच के
बगल में
यकायक आ बैठा था कोई
और फिर मुश्किल था
समझना
जीडीपी और मानव विकास सूचकांक
के जोड़-तोड़ या किसी गणित को।
क्योंकि,
फिर.... डोपामीन या फिनाइल एथिलामाइन
जैसे रसायनों ने शुरु कर दिया था
दिखाना अपना असर।

बगल वाली सीट का 
ये पहला कमाल था...
न चाहते हुए भी
रूह में उठा इक धमाल था।
और प्रेम रसायनों के उत्सर्जन से
समझ, सोच या विवेक जैसे
शब्दों का शुरु हो चुका था
जीवन से पलायन।

जीवन के अगले हिस्सों में 
फिर-फिर बढ़ता गया 
उस बगल वाली सीट का अधिकार।
पहले शायद शैक्षिक भ्रमण के दौरान
वो बस में बगल वाली सीट पर।
फिर कभी किसी रिक्शॉ में
थामा था हाथ पहली मर्तबा...
बगल वाली ही उस सीट पर।
कभी किसी सिनेमाघर में,
कभी किसी रेस्टॉरेंट या 
कभी किसी संगोष्ठी को सुनते हुए...
बगल वाली सीट पर, 
कुछ और देखने-सुनने के बजाय
वे करते थे बिना कुछ कहे-सुने
एक दूसरे के ही विचारों या भावों 
का आदान-प्रदान।

और फिर...
दफ़्तर से घर...घर से दफ़्तर के दरमियां।
अमूमन हर रोज़ ही।
ड्राइविंग सीट पर वो,
और बगल वाली सीट पर तुम
करते हुए बेइंतहा बात
लंबे रास्ते को भी 
चंद लम्हों में ही बिता देते थे।
और लगता था 
ये रास्ता इतना छोटा क्युं है?

अब,
दुनिया को खाली दिख रही
वो बगल वाली सीट
उस आवारा के लिये
अब भी किसी के होने का 
अहसास जगाती है....
और, वो सिरफिरा
रास्तों के बीच...
खाली पड़ी अपनी गाड़ी में
बगल वाली सीट से ही
बड़बड़ाता हुआ
करता है
चपड़-चपड़।
पचड़-पचड़।।
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