Saturday, April 18, 2015

वो बिखरा आशियां !!! (50 वी पोस्ट)

उस रोज़
शायद कुछ यही तिथि होगी
जब हमने-तुमने की थी
अपने सुर्ख जज़्बात की रज़ामंदियां
और साथ ही हुई थी शुरुआत
उन सपनों के घरोंदो पर
दीवारें बनाने की।

और तकरीबन कर ही ली थी
कोशिश पूरी
उस तामीर को आशियां बनाने की
पर इससे पहले
कि डलती उसपे छत
कुछ समझौतों
रिवाज़ों
और कौमी फरमानों की...
ढह गई वो इमारत!
वर्ग-बिरादरी
और कुछ मिथ्या रस्मों की
आंधियों में।

हमारे कसमों-वादों
और अनगिनत अहसासों
का वो मिट्टी-गारा
अब भी वहीं पड़ा है
ज़मीं पर होकर भी
ज़मींदोज होने के इंतज़ार में।


और मैं, 
उस न बन सके आशियाने 
को जब भी देखता हूँ
उस रास्ते से गुज़रते हुए,
बस इक यही ख़याल आता है
कि ये क्या हो सकता था
और क्या हो गया।

तुम और मैं
अब भी जब-तब
उन आंधियों को ही
जिम्मेदार कहते हैं
उस बिखरे भवन के लिये..
बिना ये देखे-बिना ये जाने
कि
नींव हमारी ही कमज़ोर थी।


कहने को 
तेरी-मेरी अपनी ही दुनिया
अपना ही आशियां
और उसपे एक मजबूत छत है
पर उस भवन में
जाने क्युं?
मैं 'तुझे'
और तू 'मूझे'
ढूंढता है।

Tuesday, April 14, 2015

मुआवजा

उम्मीदों की चट्टान पर 
जब निष्ठुर हो
पड़ती हैं हालातों की बौछारें..
तो कतरा-कतरा
महीन हो
छलनी होता है सीना
हर उस किसान का,
जो अपने खून-पसीने से
उजाड़ पर भी पहना देता है
हरी चुनरिया।
कुछ वैसे ही
जैसे एक लाचार सपूत
अरसे की मेहनत के बाद
लाता है शहर से नई साड़ी
पहनाने को अपनी मां के
दुर्बल-विक्षिप्त बदन पे।

किंतु 
कोई पुरुष अथवा प्रकृति ही
हर ले चीर उस बूढ़ी औरत का
और बनाकर नंगा कर दे मजबूर
सहने उसे सर्दी-गर्मी, 
बारिश या चिलचिलाती धूप।
तो कसम से!
माँ से ज्यादा दर्द
उस पुत्र को होता है
जिसने अपनी संपूर्ण क्षमता से
की थी कोशिश मां के आंचल को
आवरण देने की।

किसान!
एक ऐसा ही पुत्र है
जो अपने समस्त
बल-बुद्धि और वक्त को लगा 
करता है कोशिश
इस धरा की गोद भरी रखने की
और अपने साथ मानवमात्र
के जीवन को संजोने की। 
किंतु कभी बेमौसम बारिश
कभी सूखा तो कभी कुछ और...
उसकी तमाम ख्वाहिशों को 
मेट देते हैं।

और जब अपने सर्वस्व के साथ
चित्र- गूगल से साभार
उम्मीदें भी हो जाती है दफ़न
तो खुशी के नहीं, 
सिर्फ खुदकुशी के रास्ते बाकी रह जाते हैं।
और फिर 
एक किसान की मौत पे
अनाथ बच्चे
विधवा बीवी
टूटे घर
असीम कर्ज
और उस उजड़े घर के
दर्जनों भूखे पेटों के लिये
मिलता है 'मुआवज़ा'
एक-दो या पांच लाख का।

कमाल है! ज़िंदगी
तो बड़ी सस्ती चीज़ है
वो मूर्ख किसान फज़ूल में
ही इतनी मेहनत करता था।
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