Sunday, September 21, 2014

कुछ ऐसी भी बेवफाई

भंवरा,
मोटी सी काष्ठ की दीवार को
काट कर भी अपना घर बना लेता है
पर नाजुक सी सुमन की पंखुरी को 
नहीं भेद पाता
और तोड़ देता है अपना दम
अंदर ही अंदर घुट कर..
पता है क्युं?
क्योंकि
उसे लगती है बेवफाई
यूँ उस पुष्प को चुभन देने में
जिससे उसने पराग पाया।


ये पतंगे,

बारबार तपने के बाद भी
उस दीपक की ओर ही डोलते हैं
और तोड़ देते हैं 
इसी तरह अपना दम
उस दीपक की लौ में जलकर
पता हैं क्युं?
क्योंकि
उन्हें लगती है बेवफाई
उस चिराग से दूर जाने में
जिससे पाते हैं वो आभा।


और कुछ यूं ही
वो जंगल का मृग
संगीत की धुन पर
हर बार फंस जाता है
शिकारी के चंगुल में
पर फिर भी नहीं छोड़ता
अपना संगीत प्रेम
पता है क्युं?
क्योंकि
उसे लगती है बेवफाई
जीवन के स्वार्थ पर
सरगम से दूरी बनाने पर।


बस कुछ युं ही
भले जीवन की 
अपनी ही व्यक्तिगत वजहों से
चुना है तूने अपना रास्ता
और
की है मुझसे भी गुहार
चुनकर अपना पथ
आगे बढ़ने की।
पर लाख तेरी याद में
तपने के बाद
और सहकर
अनंत पीड़ा भी
मुश्किल है तूझे भुलाना...
मुझसे बनाई गई दूरियों का
इक अरसा बीत जाने पर भी
तुझे छोड़ किसी और के बारे में
सोचना 
मुझे तुझसे बेवफाई लगती है।

11 comments:

  1. वाह...लाज़वाब अभिव्यक्ति...

    ReplyDelete
  2. बहुत नर्म सी लगी ये रचना

    ReplyDelete
  3. आपकी रचना के हरेक अल्फाज मन में समा गए। आपके भावों की कद्र करते हुए
    आपके जज्बे को सलाम करता हूं। शुभ रात्रि।

    ReplyDelete
  4. ये बेवफाई ही है ... प्रेम हो तो ऐसा सोचा बी कहाँ जा सकता है ...

    ReplyDelete
  5. इक अरसा बीत जाने पर भी
    तुझे छोड़ किसी और के बारे में
    सोचना
    मुझे तुझसे बेवफाई लगती है।

    क्या बात है.....बहुत ही खास एहसासों को समेटे हैं यह पंक्तियाँ।

    ReplyDelete
  6. बढ़िया अभिव्यक्ति !! मंगलकामनाएं आपकी कलम को

    ReplyDelete
  7. बेबफाई मजूर नहीं....। वाह! बढिया सोच..,सुंदर रचना...

    ReplyDelete

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Post Comment