भंवरा,
मोटी सी काष्ठ की दीवार को
काट कर भी अपना घर बना लेता है
पर नाजुक सी सुमन की पंखुरी को
नहीं भेद पाता
और तोड़ देता है अपना दम
अंदर ही अंदर घुट कर..
पता है क्युं?
क्योंकि
उसे लगती है बेवफाई
यूँ उस पुष्प को चुभन देने में
जिससे उसने पराग पाया।
उस दीपक की ओर ही डोलते हैं
और तोड़ देते हैं
इसी तरह अपना दम
उस दीपक की लौ में जलकर
पता हैं क्युं?
क्योंकि
उन्हें लगती है बेवफाई
उस चिराग से दूर जाने में
जिससे पाते हैं वो आभा।
और कुछ यूं ही
वो जंगल का मृग
संगीत की धुन पर
हर बार फंस जाता है
शिकारी के चंगुल में
पर फिर भी नहीं छोड़ता
अपना संगीत प्रेम
पता है क्युं?
क्योंकि
उसे लगती है बेवफाई
जीवन के स्वार्थ पर
सरगम से दूरी बनाने पर।
बस कुछ युं ही
भले जीवन की
अपनी ही व्यक्तिगत वजहों से
चुना है तूने अपना रास्ता
और
की है मुझसे भी गुहार
चुनकर अपना पथ
आगे बढ़ने की।
पर लाख तेरी याद में
तपने के बाद
और सहकर
अनंत पीड़ा भी
मुश्किल है तूझे भुलाना...
मुझसे बनाई गई दूरियों का
इक अरसा बीत जाने पर भी
तुझे छोड़ किसी और के बारे में
सोचना
मुझे तुझसे बेवफाई लगती है।
वाह...लाज़वाब अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteसुंदर ।
ReplyDeleteबहुत नर्म सी लगी ये रचना
ReplyDeletesir bohut khobsurat hai
ReplyDeleteआपकी रचना के हरेक अल्फाज मन में समा गए। आपके भावों की कद्र करते हुए
ReplyDeleteआपके जज्बे को सलाम करता हूं। शुभ रात्रि।
बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteये बेवफाई ही है ... प्रेम हो तो ऐसा सोचा बी कहाँ जा सकता है ...
ReplyDeleteइक अरसा बीत जाने पर भी
ReplyDeleteतुझे छोड़ किसी और के बारे में
सोचना
मुझे तुझसे बेवफाई लगती है।
क्या बात है.....बहुत ही खास एहसासों को समेटे हैं यह पंक्तियाँ।
Nice one :)
ReplyDeleteबढ़िया अभिव्यक्ति !! मंगलकामनाएं आपकी कलम को
ReplyDeleteबेबफाई मजूर नहीं....। वाह! बढिया सोच..,सुंदर रचना...
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