Friday, October 10, 2014

नासूर ज़ख्म

गर ज्वालामुखी से

निकल लावा जमीन तक पहुंचे
तो जमीं के नित स्पर्श से पा जाता है
वो मृदुता
पर रह जाये वो
यदि तह के नीचे ही कहीं
तो धधकता है शोला बनकर।


ये ज़मीं पे बिखरे
शैल,
गर अपरदित होकर
बिखरे जहाँ-तहाँ 
तो पा जाते हैं
वो ऋजुता,
पर उतर जाये गहरे
यदि ज़मीं के अंतस में
तो हो जाते हैं ठोस वे
अपनी काया बदलकर।

कुछ ऐसे ही
वदन के ज़ख्मों पर
पड़ जाये पपड़ी
रक्त का प्रवाह ठीक हुए बगेर,
तो हो जाते हैं
वो नासूर
हमें रह-रहकर तड़पाने के लिये।


जज़्बातों के छले जाने से
उभरी है जो पीड़ा,
गर निकल जाती वो
चंद अश्क़ों के बहाने से
तो न रूह में शोले जलते
न ज़ख्म नासूर बनते
और न घटती
मानवीय संवेदनाएँ मेरी।

पर ऐसा न हो सका
अब जो है
वो, वो नहीं है
जिससे तुम्हें प्यार था
जज़्बातों के मृदु शैल
कायांतरित हो
बन चुके है इक ठोस धातु।
और इनकी लगातार सड़न ने
ज़ख्मों को भी नासूर कर दिया...
सुनो!
अब मेरी खैर-खबर पूछ
उन ज़ख्मों पे पड़ी पपड़ी मत
उखाड़ा करो।

4 comments:

  1. भाव प्रवण रचना जो दिल को छू गई। मेरे पोस्ट पर आपका आमंत्रण है।सुप्रभात।

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  2. पपड़ी उखाड़ने से बहने लगेगा सड़ी हुयी यादों का मवाद ...
    गहरी पीड़ा ... आक्रोश लिए ...

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  3. भावपुर्ण अभिव्यक्ति जो दिल को छू गई और अपनी सी लगी..

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