उम्मीदों की चट्टान पर
जब निष्ठुर हो
पड़ती हैं हालातों की बौछारें..
तो कतरा-कतरा
महीन हो
छलनी होता है सीना
हर उस किसान का,
जो अपने खून-पसीने से
उजाड़ पर भी पहना देता है
हरी चुनरिया।
कुछ वैसे ही
जैसे एक लाचार सपूत
अरसे की मेहनत के बाद
लाता है शहर से नई साड़ी
पहनाने को अपनी मां के
दुर्बल-विक्षिप्त बदन पे।
किंतु
कोई पुरुष अथवा प्रकृति ही
हर ले चीर उस बूढ़ी औरत का
और बनाकर नंगा कर दे मजबूर
सहने उसे सर्दी-गर्मी,
बारिश या चिलचिलाती धूप।
तो कसम से!
माँ से ज्यादा दर्द
उस पुत्र को होता है
जिसने अपनी संपूर्ण क्षमता से
की थी कोशिश मां के आंचल को
आवरण देने की।
किसान!
एक ऐसा ही पुत्र है
जो अपने समस्त
बल-बुद्धि और वक्त को लगा
करता है कोशिश
इस धरा की गोद भरी रखने की
और अपने साथ मानवमात्र
के जीवन को संजोने की।
किंतु कभी बेमौसम बारिश
कभी सूखा तो कभी कुछ और...
उसकी तमाम ख्वाहिशों को
मेट देते हैं।
उम्मीदें भी हो जाती है दफ़न
तो खुशी के नहीं,
सिर्फ खुदकुशी के रास्ते बाकी रह जाते हैं।
और फिर
एक किसान की मौत पे
अनाथ बच्चे
विधवा बीवी
टूटे घर
असीम कर्ज
और उस उजड़े घर के
दर्जनों भूखे पेटों के लिये
मिलता है 'मुआवज़ा'
एक-दो या पांच लाख का।
कमाल है! ज़िंदगी
तो बड़ी सस्ती चीज़ है
वो मूर्ख किसान फज़ूल में
ही इतनी मेहनत करता था।
किसान के दर्द को उजागर करती एक अच्छी रचना !
ReplyDeleteअच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर !
मई आपके ब्लॉग को फॉलो कर रहा हु मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है पसंद आये तो कृपया फोल्लोवेर बन मार्दर्शन करे
बहुत गहरी संवेदनशील रचना ...
ReplyDeleteसच में माटी पुत्र का यही हश्र है अपने महान देश में ... गहरे चोट करती है रचना ...
बहुत मर्मस्पर्शी रचना ...
ReplyDeleteकटु सत्य है जो किसान सबका पेट भरता है उसको हासिये पर रखना दुखद है ...
संवेदनशील भाव...
ReplyDeleteकमाल है! ज़िंदगी
ReplyDeleteतो बड़ी सस्ती चीज़ है
वो मूर्ख किसान फज़ूल में
ही इतनी मेहनत करता था।
किसान का दर्द प्रगट करती बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना...
बहुत खूब, दो सौ रूपए मुआवजे का दर्द एक किसान ही बता सकता है।
ReplyDeleteकमाल है! ज़िंदगी
ReplyDeleteतो बड़ी सस्ती चीज़ है
वो मूर्ख किसान फज़ूल में
ही इतनी मेहनत करता था।
...शायद यही किसान की ज़िंदगी का कटु सत्य है..दिल को छूती बहुत सुन्दर और मर्मस्पर्शी रचना..
बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.
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