वो संग थी, मेरे अंग थी
हर चाह पर, हर राह पर।
वो साथ थी, मेरे हाथ थी
हर श्वांस पर, हर आह पर।
फिर ख्वाहिशों की राह में,
एक मोड़ ऐसा भी मिला...
जहाँ अपने साये से भी
मिल गई तन्हाईयां
बेवफ़ा परछाईयाँ।।
उम्मीद थी, मेरी ईद थी
हर डगर पे, हर सफ़र में।
मेरी आन थी, पहचान थी
हर गाँव में, हर नगर में।
चलते हुए इस सफ़र मे
फिर नगर ऐसा भी मिला..
जहाँ मेरे साये ने ही मुझसे
कर ली यूँ रुसवाईयाँ
बेवफ़ा परछाईयाँ।।
मेरी जीत थी, वो गीत थी
हर हाल में, सुर ताल में।
वो ख्वाब थी, जवाब थी,
हर रात में, हर सवाल में।
फिर रात के इक ख़्वाब में
इक प्रश्न ऐसा भी मिला...
जहाँ अपने साये ने ही यूँ
दी बढ़ा बेताबियाँ
बेवफ़ा परछाईयाँ।।
सुंदर भाव ।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखते हो अंकुर , अनूठा और प्रभावशाली ! मंगलकामनाएं ,
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत ! हर पंक्ति मन की गहराइयों से निकली प्रतीत होती है... उम्दा
ReplyDeleteखूसूरत प्रस्तुति..
ReplyDeletenice 1 sir ,
ReplyDeleteplzzz have a look on this
my first hindipoem on the blog
साया तो यूँ भी छोड़ जाता है आधे समय ... रोशनी हो तो साथ देता है वर्ना ...
ReplyDeleteभावपूर्ण ... अच्छी रचना है ..
परछाई भी तभी तक सात देती है जब तक सुख का उजाला हो। वाकई बेवफा होती हैं परछाइयाँ। बहुत ही सुंदर कविता।
ReplyDeleteवाह! बहुत बढ़िया..
ReplyDeleteबहुत शानदार
ReplyDelete