रातों में जगाकर
यहाँ-वहाँ घुमाकर
और अपनी
ज़िदों से तड़पाकर
मुझे थकाते थे
वो
सितम ढाते थे..
यहाँ-वहाँ घुमाकर
और अपनी
ज़िदों से तड़पाकर
मुझे थकाते थे
वो
सितम ढाते थे..
क्या-क्या सुनाकर
बतिया बनाकर
आँसू बहाकर
मुझको सताते थे
वो
सितम ढाते थे...
सितम उनके सहके
हम मजबूर हुए
और
पर फिर भी न वो माने
जो आ गये जताने
कि
ये भी कोई सितम थे
ये तो बहुत ही कम थे...
और...फिर आखिर
उसने असली सितम ढाया
जो हमको न बताया
और इससे पहले कि
ये खुद को हम बताते
वो युं ही चले गये
और..
अब वो न कोई सितम ढाते..
पर जाने से पहले..सुनते जाओ
ऐ सितमगर!
तुम्हारे यूं
सितम ढाने का
न हमको था कभी ग़म..
पर तुम्हारा
सितम न ढाना ही है
सबसे बड़ा
'सितम'
बढ़िया है :)
ReplyDeleteधन्यवाद...
Deleteबहुत खूब !! मंगलकामनाएं . . . .
ReplyDeleteशुक्रिया सतीशजी..
Deleteबहुत खूब उम्दा प्रस्तुति ...!
ReplyDeleteRECENT POST - आज चली कुछ ऐसी बातें.
जी आभार..आता हूँ आपके द्वारे।।।
Deleteवाह...बहुत खूब...
ReplyDeleteधन्यवाद कैलाश जी...
Deleteशब्दों के जाल मे क्या खूब पिरोया है झलकियों को...आपकी यह रचना काबिलेतारीफ |
ReplyDeleteधन्यवाद संजय जी..
Deleteउनके सितम भी कहाँ सितम थे ... आये थे तो कर ही जाते कुछ सितम ... कुछ फूल हो जाती जिंदगी ... बहुत खूब ...
ReplyDeleteसही कहा नासवा जी..शुक्रिया प्रतिक्रिया के लिये...
Deleteसुंदर और भावपूर्ण...
ReplyDeleteशुक्रिया आपका...
Deletebavpurn-**
ReplyDeleteआभार आपका...
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteउम्दा ..
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