जिन लम्हों में मैं कुछ कर सकता था
पढ़ सकता था
आगे बढ़ सकता था...
उन अमूल्य लम्हों में
प्रियतम!
मैंने तुमको याद किया
उन लम्हों को बरबाद किया
तुमको पाने के खातिर
रब से तुमको फरियाद किया...
सोते-जगते बस तू ही तू
मैं जीकर भी जिंदा न था
उड़ता था तेरे ख्यालों में
उड़कर भी पर परिंदा न था...
तुझमें खोकर,
तुझसा होकर..
इस वक्त को मैनें आग किया
उन लम्हों को बरबाद किया...
पर अब क्या है?
न तुम ही हो
न वक्त वो लौट के आयेगा
दरिया में भटका ये पंछी
आखिर तट कैसे पायेगा..
मैं ठगा गया
दोनों तरफा,
न वक्त है वो
न संग तू मेरे..
बस एक प्रश्न ही रहा साथ,
जो पूछे मेरी दिल की किताब-
क्या दे सकती हो तुम मुझको
उन अतुल्य-अनुपम
गुजरे
हुए- "लम्हों का हिसाब"
संवेदित करती पंक्तियाँ,
ReplyDeleteजो चला गया, वह चला गया,
भाव धधक कर जला गया।
शुक्रिया प्रवीणजी।।।
Deleteअदभुत, अप्रतिम! भावों की इतनी सुनदर, सरल, सहज और गहराईयुक्त अभिव्यक्ति न पहले कभी देखी, न पढी न गढी। अब मुझे ये तो नहीं मालूम की कवि महोदयय ये संवेदनाए किसके लिए प्रकट कर रहे हैं। लेकिन कविता में प्रयुक्त भावों को देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि ये सार्वभौमिक सत्य है। कवि से आग्रह है कि ऐसे ही अनकही और दमित भावों को अपने शब्द शिल्प से मुखर करें उसे वाणी दें।!!!!!!!!!!
ReplyDeleteताबिश भाई बहुत-बहुत शुक्रिया आपका...ये तो आपका महात्मय हैं जो मुझे इस लायक समझते हैं...
Deletebahut altimate h sir ..pyar me kuch apko mil sakta h lekin khona bahut kuch padta h ......
ReplyDeletethanx pawan :)
Deleteअद्भुत...अंतस को छूती बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना...
ReplyDeleteधन्यवाद कैलाश जी...
Deleteवक्त कब किसी के लिये रुका है और हिसाब.........वह कौन देता है ।
ReplyDeleteसुंदर भावभीनी प्रस्तुति ।
शुक्रिया आशाजी।।।
ReplyDeleteजी ज़रूर आता हूँ..शुक्रिया आपकी प्रतिक्रिय के लिये...
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