Monday, July 14, 2014

बूँद

हाँ! मिल तो सकता है
ये असीम वैभव,
चंद सतही प्रयासों से
पर उस वैभव से क्या
जो न मिटा सके पिपासा
अंतस की रत्तीभर भी...

हाँ! जुड़ तो सकते हैं
रिश्ते,
दुनिया के तमाम लोगों से
पर उन रिश्तों से क्या
जो दिखे चमकदार
पर हों खोखले
बिल्कुल अंदर से...

कुछ ऐसे ही
हम पा तो सकते हैं
प्यार, सम्मान और अपनापन
तनिक रुतबा पाके
पर इन तमाम जज़्बातों से क्या
जिनमें कोरी औपचारिकताओं
के सिवा और कुछ न हो...

कैसे बतायें तुम्हें कि
एक कतरा नम बिन्दु की प्यास
बिन्दु से ही बुझती है
सिन्धु से नहीं..
और धरती पे मौजूद असीम
पानी के बावजूद
चातक निहारता है बस 
स्वाति में गिरी
उस एक बूँद को
जो मिटाती है क्षुधा
उस पूरे जीवन की...

उस बूँद के अर्थ का आकलन
क्या कर सकती हैं
सहस्त्रों बौछारें मिलकर भी...
या फिर जुड़ सकता है
सिरा रुहानी जज़्बूातों का
एक मर्तबा बिखरने पर....


हाँ, सब ठीक हो सकता है
गर एक दफा फिर 

मिले वो 
'बूँद'


ज़रा देखो न बाहर!
बूँदें तो बहुत बरस रही हैं
 इस बरखा में,
पर न है वो स्वाति नक्षत्र
और न है इन बूँदों में नमी
जो मिटा सके चातक की प्यास।।

9 comments:

  1. उम्दा लेखन है पाठक भी होगे ?

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  2. Kya khoob kahi hai aapne vah vah...........

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  3. Bhai wa! kya baat hai............gajab ki kalam hai yrr..............really..........

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  4. चातक निहारता है बस
    स्वाति में गिरी
    उस एक बूँद को
    जो मिटाती है क्षुधा
    उस पूरे जीवन की...

    ye lines bahut pasand aayi.........

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  5. ये प्यास बरसों में कभी कभी ही बुझ पाती है ... हर बार मिथ्या ही हाथ लगती है वर्ना ... बहुत ही भावपूर्ण लेखन ...

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