याद है न
वो जेठ की गर्मी के बाद
अषाढ़ में गिरी बारिश की पहली बूँद
भिगो देती है जो तप्त भूमि को
कोई अमृत बनके
और उस अमृत को पा
खिलखिला उठती है धरती
किसी चंचल तरुणी की तरह...
सुर्ख चुभन भरी धूप के बाद
घिर आती है काली घटा
और छा जाता है नशा
हवा के झोंकों में भी...
बंजर हो चुकी ज़मीन
फिर ओढ़ लेती है हरी ओढ़नी
और इठलाती है किसी
नवविवाहिता स्त्री की तरह....
पर देखो!
अब भी घटा घिरती है
बिजली तड़कती है
हवाएं चलती है
बरखा मचलती है
और हर बार की तरह
वैसे ही मानसून
दस्तक देता है..
किंतु!
अब इसने भिगोना
बंद कर दिया है
और अब बारिश के बीच
चलते हुए भी मुझे
छाते की ज़रूरत नहीं होती.......
वो जेठ की गर्मी के बाद
अषाढ़ में गिरी बारिश की पहली बूँद
भिगो देती है जो तप्त भूमि को
कोई अमृत बनके
और उस अमृत को पा
खिलखिला उठती है धरती
किसी चंचल तरुणी की तरह...
सुर्ख चुभन भरी धूप के बाद
घिर आती है काली घटा
और छा जाता है नशा
हवा के झोंकों में भी...
बंजर हो चुकी ज़मीन
फिर ओढ़ लेती है हरी ओढ़नी
और इठलाती है किसी
नवविवाहिता स्त्री की तरह....
प्यास के मारे दूर पलायन कर चुके
सारे पंछी भी लौट आते हैं
अपने गलीचे में
और तमाम वृक्ष भी अपनी
सरसराहट से मचाते है शोर
अहंकारी बनकर,
भुला देते हैं सारे दर्द
जो मिले थे ग्रीष्म के सख़्त रवैये से...
सबको कितनी खुशियां देता था
मानसून,
पर तब भी इस धरा, पवन,
आसमाँ और कुदरत के बीच
हमसे ज्यादा खुश
और कोई न होता था
जो बादलों के घिरने पे
मौसम बदलने पे
हवाओं के चलने पे
बूँदों के गिरने पे
चहक उठते थे
अपनी ही खुमारी में...
और थााम इक दूजे का हाथ
पकड़ लेना चाहते थे
बारिश की हर इक बूँद को
किसी नादान बच्चे की तरह..
अपनी आँखें मीच
खुले आसमां के नीचे
भिगो लेते थे अपने लवों को
उन बूँदों से...
और यकीन मानो
वो बूँदें,
लवों से उतरती हुई
सीधे ज़हन को तर करती थी
आहिस्ता-आहिस्ता...
या फिर कभी
इकदूजे से सटके
करते थे जद्दोज़हद बचने की
बेरहम बरखा से
एक ही छाते के नीचे...
पर देखो!
अब भी घटा घिरती है
बिजली तड़कती है
हवाएं चलती है
बरखा मचलती है
और हर बार की तरह
वैसे ही मानसून
दस्तक देता है..
किंतु!
अब इसने भिगोना
बंद कर दिया है
और अब बारिश के बीच
चलते हुए भी मुझे
छाते की ज़रूरत नहीं होती.......
वाह ! बेहद सुंदर अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteWah bahut sundar
ReplyDeleteकिंतु!
ReplyDeleteअब इसने भिगोना
बंद कर दिया है
और अब बारिश के बीच
चलते हुए भी मुझे
छाते की ज़रूरत नहीं होती.......
सुंदर भाव भरे हैं आपने इस रचना में
बार बार पढ़ा, काफी अच्छा लगा ...!!
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ReplyDeleteअति सुन्दर... मानसून और प्रेम का अदभुत संगम...गजब का सौंदर्य बोध और उसपर प्रेम की पीडा की लाजवाब अभिवयक्ति....पढकर चित्त प्रसन्न हो गया।
ReplyDeleteवो भी इक बारिश थी और ये भी इक बारिश ... बस तुम नहीं हो तो कितना कुछ है जो साथ नहीं ... मन के पीड सावन सी बरस रही है ... बहुत लाजवाब ...
ReplyDeleteअति सुन्दर... बारिश की बूदों का एहसास
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