बड़ी बेशर्म, खुदगर्ज
और चालबाज़
होती है ज़िदंगी
जो
बड़ी आसानी से पुराने
अहसासों
रिश्तों
और किये हुए वादों
को भुला बढ़ती चली जाती है आगे..
और चालबाज़
होती है ज़िदंगी
जो
बड़ी आसानी से पुराने
अहसासों
रिश्तों
और किये हुए वादों
को भुला बढ़ती चली जाती है आगे..
नये जज़्बात, संबंध और
कसमों की परतें
बड़ी आसानी से उन
पुरानी चीज़ों पे डिस्टेंपर पोत देती है
और नई नज़दीकियों के
कारण खुद ब खुद
ज़िंदगी में चमक आ जाती है
हाँ!
भले ही उस डिस्टेंपर के अंदर
पड़ी रूह की दीवार में सीड़न आती
रहती है आहिस्ता-आहिस्ता...
हमसफर मान ठहरा करती है
मिलन का मकसद ही जुदाई है
और वही है उसका अंतिम सत्य
उस मिलन के
सौंदर्य से जन्मी चमक में
सौंदर्य से जन्मी चमक में
अक्सर
हो जाते हैं हम अंधे कुछ ऐसे
कि हर मिलन की शुभ्रता
हमें शाश्वत जान पड़ती है
और यही भ्रम दुनिया के हर यथार्थ
से अधिक खूबसूरत लगता है....
अफसोस!
स्वप्न चाहे कितना ही सुंदर क्युं न हो
भ्रम चाहे कितना भी प्रशस्त क्युं न हो
छाया कितनी भी शीतल क्युं न हो
स्थायित्व का वास उनमें कभी नहीं होता
साहिल पे आई समंदर की लहरें
हाथों को छूने वाली बारिश की बूँदें
और ज़ुल्फों को बिखराते हवा के झोंके
चंद लम्हों को ही खुशनुमा करते हैं...
पर हम
खुद को किसी ख़याली शिखर
का शिरोमणि समझ
अपनी ज़मीं से कदम उठा लेेते हैं
और अंततः
जीवन सफ़र की इस रहनुमाई में
नित बदलते जज़्बातों के रंगों से
हमारे हाथ कोरे ही रहते हैं
और इस बेइंतहा बदलाव के चलते
इक दिन
उन हाथो से उम्मीद की लकीरें
भी मिट जाती हैं।।
बहुत ही सुन्दर....
ReplyDeleteबेहद गहन अभिव्यक्ति....
अनु
इक दिन
ReplyDeleteउन हाथो से उम्मीद की लकीरें
भी मिट जाती हैं।।
.....संवेदनशील पंक्तियाँ :))
बड़ी बेशर्म, खुदगर्ज
ReplyDeleteऔर चालबाज़
होती है ज़िदंगी
थोड़े शब्दों में बहुत ही बड़ी बात कह दी आपने....लेकिन इंसान समझ नहीं पाता...बहुत अच्छी लगी यह नज़्म
बहुत सुन्दर..
ReplyDeleteमानव मन और जीवन की बेरहम सच्चाई को बडी बेरहमी से शब्दांकित किया है आपने । हदय को छूती ही नही खरोंचती है यह कविता । किने ही भुलावों में भटकने के बाद अन्ततः एक शून्य ही हाथ रहा है ।
ReplyDeleteबहुत सारे भ्रमों की तरह कई बार उम्मीद भी भ्रम साबित होती है।
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता।
इक दिन
ReplyDeleteउन हाथो से उम्मीद की लकीरें
भी मिट जाती हैं।...जीवन का कड़वा सच, बहुत अच्छी प्रस्तुति !
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