कितनी मनोहर होती है ये—
गलतफहमियों की सुंदरता!
जहाँ आईने भी सिर झुका दें,
क्योंकि सच कहना उनकी फितरत में नहीं।
वो सोचता है—
हर ताली उसी के लिए बजती है,
हर नज़र उसकी प्रतिभा पर ठहरती है,
और हर मौन, उसकी गहराई का प्रमाण है।
वो भूल जाता है—
कि मौन तो कभी-कभी थकान भी होता है,
और ताली—सिर्फ़ शिष्टाचार।
कितना प्यारा होता है वो भ्रम,
जब आदमी खुद को केंद्र मान ले—
जैसे सूर्य उसी के चारों ओर घूमता हो,
और बाकी सब ग्रह, उसकी कृपा से जीवित।
ज्ञान की जगह जब बैठ जाता है 'वहम्',
अपने ही अहम् का..
तब हर किताब संदिग्ध लगती है,
और हर व्यक्ति—‘अपरिपक्व’।
कितनी सुरक्षित दुनिया है ये,
जहाँ प्रश्न नहीं पूछे जाते,
होती हैं सिर्फ घोषणाएँ।
अहंकार के इस मेले में
हर चेहरा मुस्कुराता है—
क्योंकि सब हैं
उस एहसास से महरूम,
कि सब विदूषक हैं यहां,
और कोई दृष्टा बचा ही नहीं।
फिर भी,
गलतफहमियों की यही तो सुंदरता है—
ये हमें मूर्ख रखकर भी
संतोष का पुरस्कार दे देती हैं।
सच के काँटों से बचाकर
झूठ के फूलों में सुला देती हैं।
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