Sunday, September 22, 2024

ब्लडी कॉन्ट्रैक्चुअल

एक दौड़ है,

और अनकही जंग भी

जो आमादा है

"कॉन्ट्रैक्चुअल"

खुद को "परमानेंट"

बनाने की होड़ में।

इसलिए देते हैं वो

धरने,

ज्ञापन,

आमरण अनशन की धमकियां भी यदा-कदा।


पर,

दूसरी ओर

एक व्यवस्था है

जो होकर आत्ममुग्ध,

बन अहंकारी

अपने ही गढ़े गये 

किलों के कंगूरो 

पर चढ़

खुद को परमानेंट

मान,

रोकते हैं 

रास्ता

"कॉन्ट्रैक्चुअल"

का।


ताकि

न बढ़ जाएं ये,

न गढ़ जाएं ये

अपने हुनर की 

इबारतों

से कोई

इतिहास।


भूलकर ये, 

कि 

सृष्टि की

निर्मम

व्यवस्था में 

नहीं है

कोई 

"परमानेंट"

होता है रिन्यू

यहां अपने ही 

सत्कर्मों

से 

हर क्षण

नया कॉन्ट्रैक्ट।


इसलिए 

इस नियति की निष्ठुरता

से परिचित हो...

खुशी की तनख्वाह,

संतोष का अप्रैसल,

विनम्रता का हाइक,

पा,

खुद को मिले

इस हर क्षण

के स्वर्णिम कॉन्टैक्ट से

आनंदित हो,

मुस्कुराकर,

जताता है शुक्रिया

प्रकृति का,

ईश्वर का,

नियति का।


हर रोज,

यही, अपना

डरा, सहमा

कुछ कर गुजरने को आतुर

"ब्लडी कॉन्ट्रैक्चुअल"


~अंकुर : 23.09.24

Thursday, October 27, 2022

ज़िंदा स्वप्न !!!

बिछोह से उत्पन्न
कोई अतृप्त लिप्सा
जो बनकर टीस रह रही है
ज़ेहन के किसी कोने में
रह-रहकर उठती है
वो अब
कोई ज़िंदा स्वप्न बनकर।


एकदम प्रत्यक्ष
एकदम अनुभूत
हाथ पर रखे आंवले की तरह
स्पष्ट, सजीव और यथार्थ
जैसे नहीं खोया हो तुम्हें,
नहीं गये हो तुम कहीं
और जी रहा हूँ तुम्हें
पहले की ही तरह
सिलसिलेवार ढंग से
स्वप्न में ही सही।

बड़ी अजीब है 
इन सपनों की ओनेइरोलोजी, 
जिसकी परतें
तमाम वैज्ञानिक अध्ययनों
के बाद भी अनसुलझी,
दबी ही रहती हैं।

मसलन,
घटे हुये को अस्वीकार कर
न घटे हुये को साकार कर
रचते हैं स्वप्न, 
अपना ही एक संसार
जिसमें तुम हो,
मैं हूँ
और हैं वो सारे स्वप्न
जो हमने नींद में नहीं;
जागते हुये देखे थे।

और स्वप्नों की
यही सजीवता
घंटों गहन निद्रा ले
जगने के बाद भी
सुषुप्ति का सुकून नहीं,
स्वप्न की थकान
दे जाती है।

नींद से उपजी
मूर्च्छा हटने के घंटों बाद भी
वो स्वप्न ही
यथार्थ के मानिंद
ज़िंदा रहता है
दिल के पटल पर।

पर,
होश आने पर पाता हूँ क्या?
कुछ नहीं!
महज एक ख़याली पुलाव के,
भ्रम को सत्य समझ
छटपटाने के।
क्योंकि,
असल तो यही है
जीवन में रह गये हो तुम
बस इक,
ज़िंदा स्वप्न
और 
मृत हक़ीकत।


Monday, October 4, 2021

प्रेम के पलायन की यात्रा


अहसासात का इक दिया 
जगमगाया था जो
बुझ गया है वो।
अनायास ही नहीं,
बड़े ही सिलसलेवार ढंग से...

बनकर पहले कशिश, 
फिर तड़प, 
फिर मोहब्बत
आदत.. 
फिर जरुरत; और
हुये फिर फ़िराक़ जो तुमसे
तो बन बैठा वही अहसास
तैश, झल्लाहट, घुटन, 
फिर नाराज़ी
और उपेक्षा में बदलकर...

अब नहीं रह गया है कुछ भी
कुच्छ भी...
जिसका ग़िला हो, नाखुशी या
शिकायत ही कोई।


ज़िंदगी से
प्रेम का पलायन
यूं ही 
नहीं होता...
टूटता है रफ़्ता-रफ़्ता
हममें बहुत कुछ
और बदलता है
कलेवर हर इक जज़्बात का।

अहसास ए इश्क़
जितना आसमानी ऊंचाई
इख़्तियार करेगा....
कमबख़्त,
गिरने पर वहाँ से
दे जायेगा ज़ख़्म
गहरा उतना ही।

खुद को मिले दर्द
का गुनहगार तलाशेंगे
हम जहाँ-तहाँ,
पर, 
इश्क के इस क़त्ल में
नहीं है 'क़ुसुरवार' 
हमारे अलावा कोई और।



कशिश हमारी, मोहब्बत हमारी
तड़प हमारी, 
आदत और जरुरत भी हमारी
तो बिछोह से पैदा दर्द का
दोषी कोई और कैसें?
खैर,
फ़ना
हुए इश्क़ का
अब दर्द भी फ़ना हो गया है।

मिट गया है
सब....सब...
हाँ...सब..
शायद....सब।
फिर,
फिर क्या है?
जो कौंध उठता है
दिल के फ़लक पर
शब ए तन्हाई में याद बनकर।


क्या? वाकई...
होता भी है, 
जीवन से कभी
"प्रेम का पलायन"

Saturday, May 23, 2020

ख़बर के शूरवीर...

कोरोना संकट के इस दौर में मीडियाकर्मियों द्वारा भी जिस तत्परता से अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया जा रहा है वह सराहनीय है अफसोस इन कोरोना योद्धाओं को उतनी तवज्जो नहीं मिल रही जिसके ये हकदार है... पिछले दिनों एक चैनल के कई मीडियाकर्मी अपने इन्हीं दायित्वों को निभाते हुए संक्रमण से ग्रस्त हो गए। अपने उन तमाम मीडिया कर्मियों और खासतौर पे अपने चैनल दूरदर्शन को लक्ष्य में रखके ये कविता इस काल मे लिखी है जो इन सभी योद्धाओं को मेरी आदरांजलि की तरह है। कविता में इनबेर्टेड कॉमा में जिन नामों को कविता के भाव के साथ पिरोया गया है वह सभी मेरे साथ काम करने वाले सहकर्मी हैं, किंतु कविता का अर्थ समग्र रूप से सभी मीडियाकर्मियों की निष्ठा को नमन करते हुए समेटने की कोशिश की है। पेश है ये लघु रचना-

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संकट छाया इस वसुधा पर,
जग का हो चला जो जीर्ण चीर।
तब साहस कर अविचल बढ़ते,
हैं हम वो 'खबर' के शूरवीर।।

बाख़बर करें हम जनता को,
जागरूक कर मेटें सबका डर।
मुश्किल पल में भी संग चलें,
हम पहुंचे हर इक गांव शहर।।
हैं लक्ष्य रखें 'अर्जुन'-सा हम,
'सहर्ष' बढ़े पथ पर प्रवीर।
जग के जंगम में संगम ले,
हैं हम वो ख़बर के शूरवीर।।1।।

हम प्रकाश किरण है 'दीपक' की,
'आदित्य' उल्लसित दिग्-दिगन्त।
तम की कारा हरने को हम,
हैं सूर्य-कान्ति सम नित उदन्त।।
'पूजा' है कर्म हमारा ये,
संकट में भी हम रखें धीर।
साहस कर नित अविचल बढ़ते,
हैं हम वो ख़बर के शूरवीर।।2।।

इन पंक नुमा हालातों में,
'पंकज' से खिलने को आतुर।
'सत्येन्द्र' मयी होकर निर्भय,
'प्रबुद्ध' है अब हर ताल और सुर।।
उम्मीदों के 'आकाश' से हम,
आशा का बनकर बरसें नीर।
साहस कर नित अविचल बढ़ते
हैं हम वो ख़बर के शूरवीर।।3।।

हो साहस तो देते हैं साथ,
खुद ब्रह्मा-"महेश' व 'श्रीकांत'।
नारद की भक्ति सा अमूल्य,
हम काम करें होकर प्रशांत।।
'इसराइल' की है इबादत ये,
हैं 'सचिन' सरीखे हम गंभीर।
साहस कर नित अविचल बढ़ते,
हैं हम वो ख़बर के शूरवीर।।4।।

कोरोना को ललकार यही,
हम डटकर इससे निपटेंगे।
इस अवनि पर 'अजीत' बन फिर,
'अंकुर' निजरस पा फूटेंगे।।
जाँ भी होगी जहाँ भी होगा,
विश्वास की इस दृढ़ है प्राचीर।।
साहस करके अविचल बढ़ते,
हैं हम वो खबर के शूरवीर।।
हैं हम 'डीडी' के शूरवीर।।पूर्ण।।

-  © *अंकुर जैन*

Saturday, January 5, 2019

बगल वाली सीट

क्लासरूम में
अर्थशास्त्र की शायद उस
कक्षा के बीच
खाली पड़ी अपनी बैंच के
बगल में
यकायक आ बैठा था कोई
और फिर मुश्किल था
समझना
जीडीपी और मानव विकास सूचकांक
के जोड़-तोड़ या किसी गणित को।
क्योंकि,
फिर.... डोपामीन या फिनाइल एथिलामाइन
जैसे रसायनों ने शुरु कर दिया था
दिखाना अपना असर।

बगल वाली सीट का 
ये पहला कमाल था...
न चाहते हुए भी
रूह में उठा इक धमाल था।
और प्रेम रसायनों के उत्सर्जन से
समझ, सोच या विवेक जैसे
शब्दों का शुरु हो चुका था
जीवन से पलायन।

जीवन के अगले हिस्सों में 
फिर-फिर बढ़ता गया 
उस बगल वाली सीट का अधिकार।
पहले शायद शैक्षिक भ्रमण के दौरान
वो बस में बगल वाली सीट पर।
फिर कभी किसी रिक्शॉ में
थामा था हाथ पहली मर्तबा...
बगल वाली ही उस सीट पर।
कभी किसी सिनेमाघर में,
कभी किसी रेस्टॉरेंट या 
कभी किसी संगोष्ठी को सुनते हुए...
बगल वाली सीट पर, 
कुछ और देखने-सुनने के बजाय
वे करते थे बिना कुछ कहे-सुने
एक दूसरे के ही विचारों या भावों 
का आदान-प्रदान।

और फिर...
दफ़्तर से घर...घर से दफ़्तर के दरमियां।
अमूमन हर रोज़ ही।
ड्राइविंग सीट पर वो,
और बगल वाली सीट पर तुम
करते हुए बेइंतहा बात
लंबे रास्ते को भी 
चंद लम्हों में ही बिता देते थे।
और लगता था 
ये रास्ता इतना छोटा क्युं है?

अब,
दुनिया को खाली दिख रही
वो बगल वाली सीट
उस आवारा के लिये
अब भी किसी के होने का 
अहसास जगाती है....
और, वो सिरफिरा
रास्तों के बीच...
खाली पड़ी अपनी गाड़ी में
बगल वाली सीट से ही
बड़बड़ाता हुआ
करता है
चपड़-चपड़।
पचड़-पचड़।।
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