उस फुटपाथ किनारे
बैठी बूढ़ी का बदनअब भी अधनंगा है
उस मौसम की मार
झेले किसान की आंख
से बहती अब भी गंगा है...
हाँ कुछ कानून और
सरकारी फंड
औरत को सुरक्षा देने आये हैं
पर कमबख़्त ये भी
उसकी अस्मिता को लुटने
से न बचा पाये हैं...
वो बेरोजगार लड़का
अपनी जेब में आज भी
सेल्फास लेके निकलता है
समाज़ के दकियानूसी
रिवाज़ों का मिजाज न
तनिक भी बदलता है...
और सुना है कि
उन भ्रष्ट लोगों को भी
क्लीन चिट मिल गई है
मानो न्याय की इमारत ही
अपनी जमीन से हिल गई है
कुछ भी तो नहीं बदला
वही शासन
वही आसन
वही लोग और
कुछ वैसे ही रोग
अरे हाँ!!!
ज़रा दीवार पे तो देखो
कैलेण्डर बदल रहा है...
चलो मिलके जश्न मनाते हैं.....
अरे हाँ!!!
ReplyDeleteचलो मिलके जश्न मनाते हैं.....
वाह कितने गहरे अहसासों को पिरोया है ………बहुत सुन्दर
शुक्रिया संजयजी..
Deleteगहरे अहसास............बहुत सुन्दर.........
ReplyDeleteआभार कौशलजी...
Deleteबहुत सुंदर जज्बात !
ReplyDeleteशुक्रिया।।।
Deleteअपने मन की अहसासों सुंदर की प्रस्तुति ...!
ReplyDeleteRecent post -: सूनापन कितना खलता है.
धन्यवाद आपका।।।
Deleteसच है, कहीं कुछ नहीं बदला केवल कलेंडर का पन्ना बदला !
ReplyDeleteनई पोस्ट मेरे सपनो के रामराज्य (भाग तीन -अन्तिम भाग)
नई पोस्ट ईशु का जन्म !
जी आता हूँ आपके आंगन में...शुक्रिया प्रतिक्रिया हेतु
Deleteसही कहा आपने
ReplyDeleteशुक्रिया ओंकार जी।।।
Deleteबहुत ही लाजवाब रचना ...
ReplyDelete:-)
आभार आपका...
Deleteधन्यवाद आपका...
ReplyDeleteजी धन्यवाद आपके चिट्ठे में जगह देने के लिये।।।
ReplyDeleteबदलते रहेंगे केलेंडर और नेता भी ऐसे ही ... पर नहीं बदलेगा ये समाज ये समय ... जो इंतज़ार कर रहा है आदमी के आदमी होने का ...
ReplyDeleteसही कहा दिगम्बरजी...इन हालातों के बदलने की उम्मीद पाले हुए ही जिंदगी गुज़र जाती है..शुक्रिया आपकी प्रतिक्रिया के लिये।।।
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