Monday, November 10, 2025

गलतफहमियों की सुंदरता



कितनी मनोहर होती है ये—

गलतफहमियों की सुंदरता!

जहाँ आईने भी सिर झुका दें,

क्योंकि सच कहना उनकी फितरत में नहीं।


वो सोचता है—

हर ताली उसी के लिए बजती है,

हर नज़र उसकी प्रतिभा पर ठहरती है,

और हर मौन, उसकी गहराई का प्रमाण है।


वो भूल जाता है—

कि मौन तो कभी-कभी थकान भी होता है,

और ताली—सिर्फ़ शिष्टाचार।


कितना प्यारा होता है वो भ्रम,

जब आदमी खुद को केंद्र मान ले—

जैसे सूर्य उसी के चारों ओर घूमता हो,

और बाकी सब ग्रह, उसकी कृपा से जीवित।


ज्ञान की जगह जब बैठ जाता है 'वहम्',

अपने ही अहम् का..

तब हर किताब संदिग्ध लगती है,

और हर व्यक्ति—‘अपरिपक्व’।

कितनी सुरक्षित दुनिया है ये,

जहाँ प्रश्न नहीं पूछे जाते,

होती हैं सिर्फ घोषणाएँ।


अहंकार के इस मेले में

हर चेहरा मुस्कुराता है—

क्योंकि सब हैं 

उस एहसास से महरूम,

कि सब विदूषक हैं यहां,

और कोई दृष्टा बचा ही नहीं।


फिर भी,

गलतफहमियों की यही तो सुंदरता है—

ये हमें मूर्ख रखकर भी

संतोष का पुरस्कार दे देती हैं।

सच के काँटों से बचाकर

झूठ के फूलों में सुला देती हैं।


#जज़्बातोंकासफ़र 

#भ्रमकासौंदर्य

#PoetryOfMisunderstanding

#beautyinconfusion 

#PoeticVibes 

#SoulfulLines 

#EmotionalInk

Friday, October 31, 2025

दाग-धब्बे


 

धब्बे

कुछ होने का शंखनाद है

और हैं गवाही फतह की


सफलता की उजली सतह पर

हैं संघर्ष का काला टीका


धब्बे

गोरे कपोल का हैं काला तिल

और सुफेदी के प्रेमी


हैं ये

जीवन का ऐलान

क्योंकि

कफ़न पे नहीं होते धब्बे।


हर जागते

भागते

कुछ कर गुजरते इंसा

के हैं मुरीद

पर

मुर्दों से दूर 


दाग धब्बे


हर उजास का

नेपथ्य

हर खामोशी का

कथ्य।


Sunday, September 22, 2024

ब्लडी कॉन्ट्रैक्चुअल

एक दौड़ है,

और अनकही जंग भी

जो आमादा है

"कॉन्ट्रैक्चुअल"

खुद को "परमानेंट"

बनाने की होड़ में।

इसलिए देते हैं वो

धरने,

ज्ञापन,

आमरण अनशन की धमकियां भी यदा-कदा।


पर,

दूसरी ओर

एक व्यवस्था है

जो होकर आत्ममुग्ध,

बन अहंकारी

अपने ही गढ़े गये 

किलों के कंगूरो 

पर चढ़

खुद को परमानेंट

मान,

रोकते हैं 

रास्ता

"कॉन्ट्रैक्चुअल"

का।


ताकि

न बढ़ जाएं ये,

न गढ़ जाएं ये

अपने हुनर की 

इबारतों

से कोई

इतिहास।


भूलकर ये, 

कि 

सृष्टि की

निर्मम

व्यवस्था में 

नहीं है

कोई 

"परमानेंट"

होता है रिन्यू

यहां अपने ही 

सत्कर्मों

से 

हर क्षण

नया कॉन्ट्रैक्ट।


इसलिए 

इस नियति की निष्ठुरता

से परिचित हो...

खुशी की तनख्वाह,

संतोष का अप्रैसल,

विनम्रता का हाइक,

पा,

खुद को मिले

इस हर क्षण

के स्वर्णिम कॉन्टैक्ट से

आनंदित हो,

मुस्कुराकर,

जताता है शुक्रिया

प्रकृति का,

ईश्वर का,

नियति का।


हर रोज,

यही, अपना

डरा, सहमा

कुछ कर गुजरने को आतुर

"ब्लडी कॉन्ट्रैक्चुअल"


~अंकुर : 23.09.24

Thursday, October 27, 2022

ज़िंदा स्वप्न !!!

बिछोह से उत्पन्न
कोई अतृप्त लिप्सा
जो बनकर टीस रह रही है
ज़ेहन के किसी कोने में
रह-रहकर उठती है
वो अब
कोई ज़िंदा स्वप्न बनकर।


एकदम प्रत्यक्ष
एकदम अनुभूत
हाथ पर रखे आंवले की तरह
स्पष्ट, सजीव और यथार्थ
जैसे नहीं खोया हो तुम्हें,
नहीं गये हो तुम कहीं
और जी रहा हूँ तुम्हें
पहले की ही तरह
सिलसिलेवार ढंग से
स्वप्न में ही सही।

बड़ी अजीब है 
इन सपनों की ओनेइरोलोजी, 
जिसकी परतें
तमाम वैज्ञानिक अध्ययनों
के बाद भी अनसुलझी,
दबी ही रहती हैं।

मसलन,
घटे हुये को अस्वीकार कर
न घटे हुये को साकार कर
रचते हैं स्वप्न, 
अपना ही एक संसार
जिसमें तुम हो,
मैं हूँ
और हैं वो सारे स्वप्न
जो हमने नींद में नहीं;
जागते हुये देखे थे।

और स्वप्नों की
यही सजीवता
घंटों गहन निद्रा ले
जगने के बाद भी
सुषुप्ति का सुकून नहीं,
स्वप्न की थकान
दे जाती है।

नींद से उपजी
मूर्च्छा हटने के घंटों बाद भी
वो स्वप्न ही
यथार्थ के मानिंद
ज़िंदा रहता है
दिल के पटल पर।

पर,
होश आने पर पाता हूँ क्या?
कुछ नहीं!
महज एक ख़याली पुलाव के,
भ्रम को सत्य समझ
छटपटाने के।
क्योंकि,
असल तो यही है
जीवन में रह गये हो तुम
बस इक,
ज़िंदा स्वप्न
और 
मृत हक़ीकत।


Monday, October 4, 2021

प्रेम के पलायन की यात्रा


अहसासात का इक दिया 
जगमगाया था जो
बुझ गया है वो।
अनायास ही नहीं,
बड़े ही सिलसलेवार ढंग से...

बनकर पहले कशिश, 
फिर तड़प, 
फिर मोहब्बत
आदत.. 
फिर जरुरत; और
हुये फिर फ़िराक़ जो तुमसे
तो बन बैठा वही अहसास
तैश, झल्लाहट, घुटन, 
फिर नाराज़ी
और उपेक्षा में बदलकर...

अब नहीं रह गया है कुछ भी
कुच्छ भी...
जिसका ग़िला हो, नाखुशी या
शिकायत ही कोई।


ज़िंदगी से
प्रेम का पलायन
यूं ही 
नहीं होता...
टूटता है रफ़्ता-रफ़्ता
हममें बहुत कुछ
और बदलता है
कलेवर हर इक जज़्बात का।

अहसास ए इश्क़
जितना आसमानी ऊंचाई
इख़्तियार करेगा....
कमबख़्त,
गिरने पर वहाँ से
दे जायेगा ज़ख़्म
गहरा उतना ही।

खुद को मिले दर्द
का गुनहगार तलाशेंगे
हम जहाँ-तहाँ,
पर, 
इश्क के इस क़त्ल में
नहीं है 'क़ुसुरवार' 
हमारे अलावा कोई और।



कशिश हमारी, मोहब्बत हमारी
तड़प हमारी, 
आदत और जरुरत भी हमारी
तो बिछोह से पैदा दर्द का
दोषी कोई और कैसें?
खैर,
फ़ना
हुए इश्क़ का
अब दर्द भी फ़ना हो गया है।

मिट गया है
सब....सब...
हाँ...सब..
शायद....सब।
फिर,
फिर क्या है?
जो कौंध उठता है
दिल के फ़लक पर
शब ए तन्हाई में याद बनकर।


क्या? वाकई...
होता भी है, 
जीवन से कभी
"प्रेम का पलायन"

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