असंख्य ग्रह, नक्षत्र
और आकाशगंगाओं के बीच
ढूंढता हूँ कभी-कभी
अपनी भी
अदनी सी हस्ती।
तलाशता हूँ उन कारणों को
जो किसी संयोग में खुशी
और वियोग में दुःख को बढ़ा देते हैं।
जब किसी चीज़ को पाकर
हो जाता है खुद पे गुमान
इस बृह्मांड से भी बड़ा होने का...
और कभी कुछ खोकर
बन जाता हूँ क्षुद्र
कि
अपने सत्व को
समझने की भी खो देता हूँ
लायकात 'मैं'।
और फिर
इस व्यक्त के व्यामोह में
जो वाकई 'व्याप्त' है
वो अनेदखा ही
रह जाता है नज़र से।
बदलते
ग्रह, नक्षत्र
दिवस, मास और वर्ष में।
टूटती
अनंत उल्कापिंडों के
दरमियाँ।
और आकाशगंगाओं के बीच
ढूंढता हूँ कभी-कभी
अपनी भी
अदनी सी हस्ती।
तलाशता हूँ उन कारणों को
जो किसी संयोग में खुशी
और वियोग में दुःख को बढ़ा देते हैं।
जब किसी चीज़ को पाकर
हो जाता है खुद पे गुमान
इस बृह्मांड से भी बड़ा होने का...
और कभी कुछ खोकर
बन जाता हूँ क्षुद्र
कि
अपने सत्व को
समझने की भी खो देता हूँ
लायकात 'मैं'।
देखता हूँ
जब जीवन वृत्त की
परिधि को
और
उसमें घट रही
घटनाओं की
अविरल संतति को...
तो कर देता हूँ व्याख्याएं
उनके अच्छे या बुरे होने की।
सिर्फ
मौजूदा अंश के प्रभाव में
आकर,
बिना समझे अनंत के प्रवाह को।।
परिधि की ये नजर
मुझे वृत्त के केन्द्र से दूर कर देती है
जो ठहरा है वहीं
मुकम्मल तब्दीलगियों के बीच।
वृत्त के उस केन्द्र के ही साथ
रह जाता हूँ मैं महरूम
'तथ्य' के भीतर छुपे 'सत्य' से
क्योंकि
घटनाओं में निहित तथ्य को
समझने से ही पहले
की गई उन व्याख्याओँ ने ढंक दिया
उस सत्य को हमेशा के लिये।
सहसा के भंवर में
सनातन छूट जाता है...
और मैं इतराता हूँ
इन त्वरित उपलब्धियों पे,
उन्हें देख ही हंसता हूँ
रोता हूँ उन्हीं से।
कभी रुसवाईयों में
या चरम तन्हाईयों में,
अपेक्षित से उपेक्षित होने के बाद
होता भी है भान
संयोगों की ध्वंसात्मक
प्रकृति का...
तब भी वो विरक्ति का आवेग
भ्रामक सुख-संयोगों से
विभक्ति की वजह नहीं बन पाता।
और फिर
इस व्यक्त के व्यामोह में
जो वाकई 'व्याप्त' है
वो अनेदखा ही
रह जाता है नज़र से।
बदलते
ग्रह, नक्षत्र
दिवस, मास और वर्ष में।
टूटती
अनंत उल्कापिंडों के
दरमियाँ।
वो बना ही रहता है ओझल...
जो ठहरा है
अपनी धुरी पर
अचल, स्थायी और सिद्ध।
बस, इसीलिये
इस बदलाव के बीच,
मुझे भी बदलना पड़ता है।
आना पड़ता है
धरा पर
रूप बदल-बदलकर।