Monday, February 24, 2014

अहसास और अल्फाज़

साथ हम चल रहे थे
इक सफ़र में
इक डगर में
गुस्ताखियों का सिलसिला
फिर युँ ही कुछ बढ़ने लगा
हमारे सर चढ़ने लगा.…
और
हो गई नादानियाँ
बढ़ गई बेचैनियाँ
और गलतफहमियाँ
फिर
रास्ते बदल गये
वास्ते बदल गये
और वो यूँ ही चले गये
खामोश लफ्ज़ो से भरे
अहसास हम कहते रहे
पर अल्फाज़ वो सुनते रहे.…

फिर रास्तों के बीच में 
इक कारवां ऐसा मिला 
जोड़ सकता था जो आके 
टूटा हुआ ये सिलसिला… 
पर,
धोखा यहाँ भी हो गया 
मौका मिला
वो खो गया
और
हो गये फिर हम जुदा 
वो हो गये मेरे खुदा 
पर मुझसे ही क्यु गुमशुदा 
वो मिले,
मिलकर चले गये 
हालात से हम छले गये.… 
और आखिर ये हो भी क्यों न!
खामोश लफ्ज़ो से भरे 
अहसास हम कहते रहे 
पर अल्फाज़ वो सुनते रहे.…

Thursday, February 13, 2014

वेलेन्टाइन

मोहब्बत का क़त्ल कर 
एक संस्कृति पनपी है 
जहाँ समाज है 
रिवाज़ है 
और ज़िंदगी मोहताज़ है 
महज 
कोरी वासना के लिए.… 
और इस संस्कृति में 
वो सब कुछ है 
जिसमे प्रेम आकार लेता है 
पर अफ़सोस 
गुम हो चुका है
एक अदद प्रेम ही कहीं।

एक सामीप्य को 'डेट' की संज्ञा दे
बस हवस की पूर्ति के
जतन जारी है.…
पर डेट के नाम पे
प्रेम की तो कही डेथ ही कर दी है
इस ज़माने ने...

त्याग, समर्पण और निस्वार्थ
वृत्ति के अर्थों को भुला
सिर्फ कोरी लीपापोती
ढोंग
और झूठा दिखावा ही
रह गया है प्रेम


प्रेम की क़ातिल 
इस संस्कृति  ने 
संवेदनाओ की मौत पे, 
महज़ खाना पूर्ति के लिए 
पकड़ा दिया है 
समाज को 
एक महक रहित गुलाब,
एक थोथा ग्रीटिंग कार्ड 
और वेलेंटाइन का लॉलीपॉप।।।  

Tuesday, February 4, 2014

अंकुर

(ये कविता मैंने अपने 18 वे जन्मदिन पर लिखी थी..आज अचानक पुरानी डायरी के पन्ने खंगालते हुए ये किसी तरह मिल गई..जिसे आपके साथ साझा कर रहा हूँ)
चित्र- सौ. उमेश सक्सेना

कौन कह सकता है कि अंकुर क्या है
जिसे खुद अंकुर भी नहीं जानता, उसे कोई और
कैसे कह सकता है कि अंकुर क्या है?

क्या है वो और कौन होगा, कौन जानता है
रहेगा भी या मिट जाएगा, कौन जानता है।
बन जाएगा बटव़ृक्ष या होगा इक छोटी कली
प्रतिकूलता में पला है या अनुकूलता उसको मिली।।
नहीं जानता वो लघू बीज कि उसका कल क्या है..
फिर कौन कह सकता है कि अंकुर क्या है?

खुशबू देगा जहाँ को या काँटों से युक्त होगा
हलाहल से भरा हो या ज़हर से मुक्त होगा।
निर्भर नहीं उसपे ये कि वो होगा कैसा
मिले जैसा खाद-पानी होगा वो वैसा।।
नहीं जानता वो कि उसका फल क्या है..
फिर कौन कह सकता है कि अंकुर क्या है?

क्या छुपा होगा कहीं मीठे फलों का राज उसमें
या कहीं ठहरा हुआ हो ठंडी हवा का साज उसमें।
सहेगा पतझड़ या फिर खिलेगा बहार में वो
ग़म के सूखे में पले या खुशी की बयार में वो।।
उसका हो निर्माण कैसा इसका प्रमाण क्या है...
फिर कौन कह सकता है कि अंकुर क्या है?

इस छोटे से बीज में यूं तो छुपा संसार है
थोड़े से खाद-पानी का फल मिले अपार है।
ये लघुतर अंश अनेकों अंकुरों को जन्म देता
इतना देने पर भी हमसे रंचमात्र ही कुछ लेता।।
हो बता सकते कि इस लेन-देन का राज क्या है...
तो फिर कौन कह सकता है कि अंकुर क्या है?

अब मैं बताता हूँ तुम्हें कि अंकुर क्या है
जिसे खुद अंकुर भी नहीं जानता कि अंकुर क्या है..
दो पहलु हो सकते हैं इस नन्हें से बीज के
पर अभी न भेद बनते इस अनोखी चीज़ है।
न काँटे होते इसमें न ही फूल की भी महक मिलती
न किसी को चुभन देता, न पत्र से ही पवन मिलती।।

मीठे फलों से युक्त न ही, कड़वाहट का लेश इसमें
न किसी की मदद करता, न किसी को क्लेश इसमे।
भले ही ये वृक्ष बनकर कैसा भी हो जायेगा
पर उस भविष्य का लेश भी इसमें न आने पायेगा।
वृक्ष में तो कदाचित् कपट देखी जा सके
पर ये तो सदा निरपेक्ष-निष्कपट जाना जायेगा।।

अंकुर प्रतीक निर्माण का, प्रतीक है ये जीवन का
ठहराव न इसमें कभी भी, प्रतीक है ये गमन का।
चलते चलो-बढ़ते चलो, इसका ही ये संदेश देता
न प्रीति हो न द्वेष हो, प्रतीक दुःख के शमन का।।

निःराग-निर्द्वेषता को, ये हमें कहता चले
सदा पर से उदासीन, ये बताता ही बढ़े।
पर देखो हालत ज़रा इस मायावी संसार की
सदाचार सबसे चाहते, पर इज़्जत न सत्-आचार की।।

लक्ष्य पे जाने की इच्छा, पर चाहते न कार्य करना
अंकुर बने बिना ही चाहें, बड़ा सा इक वृक्ष बनना।
पूछना है तो पूछो खुद से, इस संसार का रूप क्या है...
क्यूं 'अंकुर' को तंग करते, जो पूछते कि अंकुर क्या है????
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Post Comment