Wednesday, April 30, 2014

परछाईयाँ

वो संग थी, मेरे अंग थी
हर चाह पर, हर राह पर।
वो साथ थी, मेरे हाथ थी
हर श्वांस पर, हर आह पर।
फिर ख्वाहिशों की राह में,
एक मोड़ ऐसा भी मिला...
जहाँ अपने साये से भी
मिल गई तन्हाईयां
बेवफ़ा परछाईयाँ।।

उम्मीद थी, मेरी ईद थी
हर डगर पे, हर सफ़र में।
मेरी आन थी, पहचान थी
हर गाँव में, हर नगर में।
चलते हुए इस सफ़र मे
फिर नगर ऐसा भी मिला..
जहाँ मेरे साये ने ही मुझसे
कर ली यूँ रुसवाईयाँ
बेवफ़ा परछाईयाँ।।

मेरी जीत थी, वो गीत थी
हर हाल में, सुर ताल में।
वो ख्वाब थी, जवाब थी,
हर रात में, हर सवाल में।
फिर रात के इक ख़्वाब में
इक प्रश्न ऐसा भी मिला...
जहाँ अपने साये ने ही यूँ
दी बढ़ा बेताबियाँ
बेवफ़ा परछाईयाँ।।

Friday, April 18, 2014

तेरे हिस्से का वक्त

तुमने देखा ही होगा
अचानक 
नीरव गगन में बिजली का कौंधना,
चौंधिया जाती है जिससे निगाहें अक्सर

और युं ही
महसूस भी किया होगा
निस्तब्ध दुपहरी में
यकायक गर्म लपटों का चलना
कमबख़्त बिखेर देती है हमें..

और हाँ,
शांत पड़े समंदर में
सहसा उठी लहरों को भी
देखा ही होगा न
जो तीर पे खड़े इंसा को
चौंका देती है बिना इत्तला किये ही..

ये सब नज़ारे तो बस एक नज़ीर हैं
अपने रुहानी हालातों
को बयां करने के लिये
जो हालत तेरी यादों की 
जुंबिशों की वजह से हुई है

अक्सर मेरे रूह के आसमान
पर कौंधती है तेरी यादों की बिजली
अक्सर चलती है उन अहसासों की लपटें
जो जज़्बात मिले थे मुझे

तेर संग बिताये लम्हों से
और ऐसे ही उठती है
कुछ खयाली लहरें
मेरे दिल के समंदर में...
और यकीन मान
हर बार संभलने के बावजूद
मैं फिर बिखर जाता हूँ...

तुझे भुलाकर एकदम,
मैं बढ़ चुका हूँ आगे
और कर लिया है खुदको
मशरूफ इतना
कि अब रात-दिन का
हर एक पल बस मेरे
अपने लिये ही फना है
और न रह गई है फुरसत
मुझे
अब किसी बेबुनियाद
जज़्बात को लेकर

पर फिर भी सुन ऐ सितमगर!
तेरी याद,
वो ख़याल
और वो अधूरे जज़्बात
अब भी
मुझे बिखेरने में
कोई कसर नहीं छोड़ते...
और 
इस मशरूफियत के बावजूद
तेरे हिस्से का वक्त
अब भी
खाली गुज़रता है...

Sunday, April 13, 2014

सितम

रातों में जगाकर
यहाँ-वहाँ घुमाकर
और अपनी
ज़िदों से तड़पाकर
मुझे थकाते थे
वो
सितम ढाते थे..



क्या-क्या सुनाकर
बतिया बनाकर
आँसू बहाकर
मुझको सताते थे
वो 
सितम ढाते थे...

सितम उनके सहके
हम मजबूर हुए
और
थकके चूर हुए
पर फिर भी न वो माने
जो आ गये जताने
कि
ये भी कोई सितम थे
ये तो बहुत ही कम थे...


और...फिर आखिर
उसने असली सितम ढाया
जो हमको न बताया
और इससे पहले कि
ये खुद को हम बताते
वो युं ही चले गये
और..
अब वो न कोई सितम ढाते..

पर जाने से पहले..सुनते जाओ
ऐ सितमगर!
तुम्हारे यूं 
सितम ढाने का
न हमको था कभी ग़म..
पर तुम्हारा
सितम न ढाना ही है
सबसे बड़ा
'सितम'

Thursday, April 3, 2014

मेरा अर्धसत्य

रूह की
पुरानी पड़ चुकी
दिवारों की 
पपड़ियों को उखाड़ते हुए
वो जानना चाहते थे
पूरा सच...
गालों पर गड्ढे
बनाने वाली
नकली मुस्कान के
पीछे की हकीकत..

और बस इसलिये
युं ही उन्होंने
हमसे दिल लगाया
बहलाया
फुसलाया
और जब उनका
सुरूर हम पर छाया
तो फिर एक दिन
मुस्काते चेहरे पे
चुपचाप थूककर
चले गये वो
जानने के लिये
हमारी शख्सियत का
पूरा सच..

पर बेशर्म शक्ल ये
फिर भी मुस्काती रही
गड्ढे गालों के
दिखाती रही
और
लाख मशक्कत के बावजूद
भी वो जान पाये सिर्फ
'मेरा अर्धसत्य'
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