Sunday, June 15, 2014

खुश्क मानसून

याद है न
वो जेठ की गर्मी के बाद
अषाढ़ में गिरी बारिश की पहली बूँद
भिगो देती है जो तप्त भूमि को
कोई अमृत बनके
और उस अमृत को पा
खिलखिला उठती है धरती
किसी चंचल तरुणी की तरह...

सुर्ख चुभन भरी धूप के बाद
घिर आती है काली घटा
और छा जाता है नशा
हवा के झोंकों में भी...
बंजर हो चुकी ज़मीन
फिर ओढ़ लेती है हरी ओढ़नी
और इठलाती है किसी
नवविवाहिता स्त्री की तरह....

प्यास के मारे दूर पलायन कर चुके
सारे पंछी भी लौट आते हैं
अपने गलीचे में
और तमाम वृक्ष भी अपनी 
सरसराहट से मचाते है शोर
अहंकारी बनकर,
भुला देते हैं सारे दर्द
जो मिले थे ग्रीष्म के सख़्त रवैये से...

सबको कितनी खुशियां देता था
मानसून,
पर तब भी इस धरा, पवन, 
आसमाँ और कुदरत के बीच 
हमसे ज्यादा खुश   
और कोई न होता था
जो बादलों के घिरने पे
मौसम बदलने पे
हवाओं के चलने पे
बूँदों के गिरने पे
चहक उठते थे 
अपनी ही खुमारी में...

और थााम इक दूजे का हाथ
पकड़ लेना चाहते थे
बारिश की हर इक बूँद को
किसी नादान बच्चे की तरह..
अपनी आँखें मीच
खुले आसमां के नीचे
भिगो लेते थे अपने लवों को
उन बूँदों से...
और यकीन मानो
वो बूँदें,
लवों से उतरती हुई
सीधे ज़हन को तर करती थी
आहिस्ता-आहिस्ता...
या फिर कभी 
इकदूजे से सटके
करते थे जद्दोज़हद बचने की
बेरहम बरखा से
एक ही छाते के नीचे...


पर देखो!
अब भी घटा घिरती है
बिजली तड़कती है
हवाएं चलती है
बरखा मचलती है
और हर बार की तरह
वैसे ही मानसून
दस्तक देता है..
किंतु!
अब इसने भिगोना
बंद कर दिया है
और अब बारिश के बीच
चलते हुए भी मुझे
छाते की ज़रूरत नहीं होती.......

Thursday, June 5, 2014

भ्रम का सौंदर्य

बड़ी बेशर्म, खुदगर्ज
और चालबाज़
होती है ज़िदंगी
जो
बड़ी आसानी से पुराने
अहसासों
रिश्तों
और किये हुए वादों
को भुला बढ़ती चली जाती है आगे..

नये जज़्बात, संबंध और
कसमों की परतें
बड़ी आसानी से उन
पुरानी चीज़ों पे डिस्टेंपर पोत देती है
और नई नज़दीकियों के
कारण खुद ब खुद
ज़िंदगी में चमक आ जाती है
हाँ!
भले ही उस डिस्टेंपर के अंदर
पड़ी रूह की दीवार में सीड़न आती
रहती है आहिस्ता-आहिस्ता...


पर ज़िंदगी कहाँ किसी को 
हमसफर मान ठहरा करती है
मिलन का मकसद ही जुदाई है
और वही है उसका अंतिम सत्य
किंतु
उस मिलन के
सौंदर्य से जन्मी चमक में
अक्सर
हो जाते हैं हम अंधे कुछ ऐसे
कि हर मिलन की शुभ्रता
हमें शाश्वत जान पड़ती है
और यही भ्रम दुनिया के हर यथार्थ
से अधिक खूबसूरत लगता है....

अफसोस!
स्वप्न चाहे कितना ही सुंदर क्युं न हो
भ्रम चाहे कितना भी प्रशस्त क्युं न हो
छाया कितनी भी शीतल क्युं न हो
स्थायित्व का वास उनमें कभी नहीं होता
साहिल पे आई समंदर की लहरें
हाथों को छूने वाली बारिश की बूँदें
और ज़ुल्फों को बिखराते हवा के झोंके
चंद लम्हों को ही खुशनुमा करते हैं...

पर हम
उन लम्हों की बेसुधी में ही 
खुद को किसी ख़याली शिखर 
का शिरोमणि समझ
अपनी ज़मीं से कदम उठा लेेते हैं
और अंततः
जीवन सफ़र की इस रहनुमाई में 
नित बदलते जज़्बातों के रंगों से
हमारे हाथ कोरे ही रहते हैं
और इस बेइंतहा बदलाव के चलते
इक दिन 
उन हाथो से उम्मीद की लकीरें
भी मिट जाती हैं।।
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