इन पन्नों पे
बिखरे पड़े ये अल्फाज़
जिन्हें तुम शायरी
समझ
मेरी तारीफ में
क़सीदे गढ़ते हो...
शायरी नहीं है ये,
ये तो हैं वो रिसते
हुए ज़ख्म
जिसे पोंछा था
मैंने कागज़ों से।
ये जिन गीतों
को सुन
बताते हो मुझे
तुम,
प्रवर्तक कोई
साहित्य की दिव्य
प्रथा का...
गीत नहीं हैं ये,
ये तो हैं वो
सिसकियां
जो अक्सर
मचाती हैं शोर
उदास पड़े वीरानों में।
इन हाथों से लिखी
वो हर इक इबारत
जो करती थी पैदा
तुममें भी मेरी
होशियारी का...
क़सम से!
वो इबारतें
नहीं हैं प्रतीक,
किसी
तीक्ष्ण प्रज्ञा का।
बस छींटे हैं वो
उस कलम की स्याही के
जिसे आंसुओं की
दावात में डुबो के
भरा था मैंने।
अच्छा ये नहीं,
कि निकल जाती है
पीड़ा,
इन अल्फाज़ों से...
अच्छा तो तब होता
जब कोई पीड़ा ही
न होती।
यकीन मानो!
इन गीतों, मिसरों
और कविताओं
पे बजने वाली
तालियां,
रूह के सन्नाटों
को और गहरा ही बनाती हैं।
बहुत सुन्दर .कभी-कभी अल्फाज काफी कुछ कह जाते हैं.
ReplyDeleteनई पोस्ट : गुमशुदा बौद्ध तीर्थ
नई पोस्ट : तेरी आँखें
बृ
ReplyDeleteबेहद उम्दा सर
अंकुर जी बेहद सुन्दर रचना ..बधाई और मंगलकामनाएँ
ReplyDeleteये अलफ़ाज़ ही तो हैं जो बिना बोले कितना कुछ बोल जाते हैं ... और सनाते में भी ले जाते हैं ...
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeleteइन अल्फाज़ों से...
ReplyDeleteअच्छा तो तब होता
जब कोई पीड़ा ही
न होती।
..दर्द भी है ये और दवा भी ..बस वक्त का फेर रहता है ..
बहुत बढ़िया
ज्यों वीराने में गूंजता हो कुछ तो शब्द बनता है...
ReplyDeleteमन के भावो को बहुत ही सादगी और सुन्दरता से व्यक्त किया है..बहुत ही खुबसूरत रचना... :-)
ReplyDeleteइन गीतों, मिसरों
ReplyDeleteऔर कविताओं
पे बजने वाली
तालियां,
रूह के सन्नाटों
को और गहरा ही बनाती हैं।
...वाह..बहुत मर्मस्पर्शी उत्कृष्ट अभिव्यक्ति...
बेहतरीन
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