मोहब्बत का क़त्ल कर
एक संस्कृति पनपी है
जहाँ समाज है
रिवाज़ है
और ज़िंदगी मोहताज़ है
महज
कोरी वासना के लिए.…
और इस संस्कृति में
वो सब कुछ है
जिसमे प्रेम आकार लेता है
पर अफ़सोस
गुम हो चुका है
एक अदद प्रेम ही कहीं।
एक सामीप्य को 'डेट' की संज्ञा दे
बस हवस की पूर्ति के
जतन जारी है.…
पर डेट के नाम पे
प्रेम की तो कही डेथ ही कर दी है
इस ज़माने ने...
त्याग, समर्पण और निस्वार्थ
वृत्ति के अर्थों को भुला
सिर्फ कोरी लीपापोती
ढोंग
और झूठा दिखावा ही
रह गया है प्रेम
प्रेम की क़ातिल
इस संस्कृति ने
संवेदनाओ की मौत पे,
महज़ खाना पूर्ति के लिए
पकड़ा दिया है
समाज को
एक महक रहित गुलाब,
एक थोथा ग्रीटिंग कार्ड
और वेलेंटाइन का लॉलीपॉप।।।
प्रेम की गहराई से समझें हम, दिन में न समेंटे।
ReplyDeleteसहमत...
Deleteयाने कमाल है कि हमें इस blog का पता नहीं.....?????
ReplyDeleteकविताएँ हमसे छिपी रहीं ??? सालाफिल्मी पढ़ते रहे :-)
बहुत बढ़िया कविता,,,बाकि भी पढ़ती हूँ तसल्ली से..
अनु
चलिये कोई बात नहीं..देर आयी दुरुस्त आयी। स्वागत है आपका इस गुलदस्ते में....
Deleteमोहब्बत का क़त्ल कर
ReplyDeleteएक संस्कृति पनपी है .......बहुत बढ़िया...
शुक्रिया कौशल जी....
Deleteकई बार लगता है ऐसा पर जब इन सब से परे प्रेम के ही बारे में सोचो तो लगता अहि प्रेम है ... जीने के लिए .. निभाने के लिए न की बाँधने के लिए किसी एक दिन में ...
ReplyDeleteसही कहा नासवाजी..लेकिन मौजूदा दौर में ये बातें लोगों को आउटडेटेड लगती हैं।।।
Deleteachha likha hai....
ReplyDeletepar prem hai, vahi jo saral hriday mein aaj bhi basta hai, fulta hai.......
shubhkamnayen
शुक्रिया प्रीति जी...
Deleteस्नेह भरे सुन्दर शब्द. अति सुन्दर....वैलेंटाइन प्रस्तुति
ReplyDeleteशुक्रिया संजय जी....
Deleteबहुत सार्थक और सटीक कटाक्ष है बे -चैनियों का गुलदस्ता :
ReplyDeleteप्रेम की क़ातिल
इस संस्कृति ने
संवेदनाओ की मौत पे,
महज़ खाना पूर्ति के लिए
पकड़ा दिया है
समाज को
एक महक रहित गुलाब,
एक थोथा ग्रीटिंग कार्ड
और वेलेंटाइन का लॉलीपॉप।।।
धन्यवाद वीरेन्द्र जी...
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