Sunday, March 8, 2015

औरत होने के मायने


उसने की जब-जब भी
इश्क़ की हसरतें मुझसे
मैंने बचकानी हरकतें बता

उन्हें धुतकार दिया।
उसने की जब-जब 
ख़्वाहिशें कहीं जाने की 
कुछ पाने की
मैंने बेहुदा जिद कह
उन्हें नकार दिया।
कभी रूठी वो मुझसे
तो कहा नखरा है ये
कभी मान गयी खुद ही
तो कहा स्वारथ छुपा है कोई।
और जब नहीं रही
कोई हसरत-जिद या ख़्वाहिश 
उसकी,
और कह गई अलविदा चुपचाप
मेरी ज़िंदगी से
तो उसकी इस अदा को कहा
बेवफाई मैंने।

हर वक्त ही तो मैं सही 
और गलत रही है, वो औरत!
कभी छोड़े चुटकुले उसपर
तो कभी बेबाकी से गाली देदी।
गालियों का लेन-देन कर रहे थे पुरुष
पर वहाँ भी बीच में थी
माँ-बहन या बेटी।

हाँ! कुछ वक्त के लिये
की थी मैंने भी मिन्नतें उससे।
जब महज़ जिस्म की आस में
किया होगा प्रेम का इज़हार...
पर इकरार-ए-इश्क के बाद
कहते हैं प्रेम किसे?
असल मायनों में सिखाया
मुझे उसने।

उसका हर इक करम
मुझे तिरियाचरित्तर लगा
पर उसका ये चरित्र
है किसके लिये 
मैं ऐसा कभी न समझ सका।
औरत कभी खुद के लिये नहीं जीती
उसके 'स्व' में वो अकेली नहीं होती।
गर इतनी सी बात मैं समझ गया होता
तो उसके दिल पे यूँ घाव न करता
भले छिन जाता मुझसे मेरा कुछ
पर उसके लिये मैं पुरुष जैसा बर्ताव न करता।

पर ऐसा हो न सका..
मैं आँखों में क्रोध लिये
एक कमजोर पुरुष रहा..
और 
वो आँखों में आंसू लिये
हमेशा एक मजबूत औरत।

अफसोस! मैं औरत न बन सका..
इस धरा के जिन परमाणुओं से
बनती है औरत,
वो परमाणु बस उतने ही हैं 
और न हो सकता है उनसे
कभी किसी पुरुष का निर्माण।

गर कभी-किसी रोज-कहीं पर
पा लिये मैंने थोड़े से गुण 
उस औरत के
तो मैं महज़ इंसान नहीं रह जाउंगा...
 उठ जाऊंगा
इंसानियत की ज़मीं से बहुत ऊपर।

(*विश्व की तमाम माँ-बहन-बेटी-पत्नी और महिलामित्रों को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शुभकामनाएं)

12 comments:

  1. क्या बात है अंकुर जी...शानदार

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  2. सुन्दर अभिव्यक्ति ! साभार! संजय जी!
    धरती की गोद

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  3. गर कभी-किसी रोज-कहीं पर
    पा लिये मैंने थोड़े से गुण
    उस औरत के
    तो मैं महज़ इंसान नहीं रह जाउंगा...
    उठ जाऊंगा
    इंसानियत की ज़मीं से बहुत ऊपर। bahut sundar abhiwayakti ...

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  4. अत्यंत सुन्दर .......भावपूर्ण!

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  5. भावपूर्ण ......सुन्दर ...

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  6. ''औरत होने के मायन'' बेहद सुंदर और भावपूर्ण रचना के रूप में प्रस्‍तुत हुई है। इसके लिए बहुत बहुत धन्‍यवाद।

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  7. इंसानियत की जमीन से ऊपर उठना जानती है एक ओरत क्योंकि वाही है जो माँ, पत्नी और बेटी है एक साथ ... भावपूर्ण रचना ...

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  8. गर कभी-किसी रोज-कहीं पर
    पा लिये मैंने थोड़े से गुण
    उस औरत के
    तो मैं महज़ इंसान नहीं रह जाउंगा...
    उठ जाऊंगा
    इंसानियत की ज़मीं से बहुत ऊपर।
    ..बहुत सुन्दर विचार .... तभी उसे माँ कहा है ...

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  9. बढ़िया अभिव्यक्ति , मंगलकामनाएं आपको !

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  10. अंकुर जी ,बधाई आपको - इतने खुले मन से इस सच को कोई बिरला पुरुष ही स्वीकार कर पाता है !

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