Sunday, December 7, 2014

सर्दियां

घरों से निकल गये हैं
बाहर सभी
अलाव, सिगड़ियां
और पेटियों में बंद पड़ी
कम्बल-रजाई।



कुहासे ने ले लिया है
सूरज की तीक्ष्ण आभा को भी
अपनी श्वेत धुंध के आगोश में।
और
पद्मपत्रों पर पड़ी
ओस की बूंदे भी
बन गई है सख़्त
बदलकर
बर्फीले मोतियों में।
पाला, तुषार और
बेहिसाब बर्फवारी...
कई उम्मीदों को भी
ढक देती हैं
ज़मीं की हरितमा की तरह।

सच,
मासूम से दिखने वाली
ये सर्दियां
भी बड़ी बेरहम मिज़ाज की होती हैं।


पर मेरे लिये नहीं,
क्योंकि मेरे अक्स में
दहक रहा है अलाव
तेरी हस्ती का।
और गुजरे लम्हों की
आंच,
सुलगा देती है मुझे
रह-रहकर।



वो तेरे सिरहाने
होने वाले मेरे हत्थु-तकिये
फिर करना नुमाईश
बांहों के कम्बल की।
और ऐसे ही वो खरीदे हुए
ढीले स्वेटर
जो एक में ही देते थे
पनाह हम दोनों को।
अब भी,
दूर से ही
मेरी सर्दी भगाते हैं.....


'सर्दियां'
जमाने को जमाती होंगी
अपनी सर्द लहरों से...
पर मैं,
बीते लम्हों से मिली
यादों की तपन से
हर पल पिघलता हूँ।

Sunday, November 16, 2014

मुझमें 'तू'

जीवन की बासलीका दौड़ में

कुछ बेदस्तूरियां भी
होती है ठहरी
कहीं
हमें बताने को
कि
हम भी बिखरे हैं
औरों की तरह।

रस्मों-रिवाज़
और पूरी संजीदगी से
ये ज़िंदगी बिताने पर भी,
कुछ तो है
कैद इस सीने में
जो जीने नहीं देता..
मुझे पीने नहीं देता
उमंगो का प्याला।

बदन में चुभी फांस की तरह
न लौटी हुई सांस की तरह
उधड़े हुए लिबास की तरह
न मिटने वाली प्यास की तरह
जो रुका हुआ है मुझमें!
वो कोई और नहीं
तुम ही तो हो...

हाँ! वो तुम्ही तो हो
जिसने अपनी हिरासत में
मेरी रूह को रख
जिस्म को खुल्ला छोड़ा है।
तुम ही तो हो
जिसने अदृश्य तंतु
से खुद को बांध,
मुझसे
बस कहने को नाता तोड़ा है।

और बस इसलिये ही तो
आईने के सामने होता हूँ मैं
पर दिखते हो तुम,
अनजानी राहों पे भटकता हूं मैं
पर मिलते हो तुम।
यादों की लू में झुलसता हूँ मैं
पर खिलते हो तुम,
और कुछ ऐसे ही
खुले पड़े ज़ख्मों को भरता हूँ मैं
पर फिर भी रिसते हो तुम।।

कई कोस का फासला 
इकदूजे के बीच रखने के बावजूद
'तू'
ले रही है सांसे 
मेरे ही अंदर
किसी परजीवी की भांति..
और मुझसे मेरी ही शिनाख्त
छीनकर
हुई है पल्लवित
'तू'
कोई हाल ही में खिला
गुलाब बनकर।
अपनी बुद्धिमत्ता से 
यूं तो 
सुलझाये हैं कई सवाल मैंने
पर इक तू  है
जो थमी है मुझमें ही कहीं
कोई उलझा हुआ 
जबाव बनकर।।

Wednesday, November 5, 2014

तुझमें 'मैं'

हाँ भुला दो..
है छूट तुम्हें पूरी
कि अब तुम भुला ही दो।
अब तो धुंधली पड़ ही गई होंगी
वो स्मृतियां...
जिसमें तुम साथ थे
हाथों में लिये हाथ थे
रुहानी जज़्बात थे।

हाँ भुला दो न!
बार-बार ये जताने से अच्छा है
एक बार भुला ही देना
और कर देना
अजनबी मुझे
पीछे छूटे किसी दरख़्त की तरह।

तुम्हारी इन लाख कोशिशों के बावजूद
मैं फिर उभर आऊंगा..
जब पेड़ से पत्ता कोई झरेगा
जब हवा का झोंका कोई
ज़ुल्फ तेरी छूएगा 
या महफिल में कभी
गीत कोई बजेगा।

इन असंख्य हरकतों से
जो भी कुछ तेरी रूह में
उभरा होगा..
कोई अहसास बनकर
लिबास बनकर
या अनकही सी प्यास बनकर
वो 'मैं' ही हूँ।
क्यूंकि तेरे लाख आगे बढ़ जाने 
के बावजूद
मैं चस्पा हूँ तुझमें कहीं
इक खरोंच बनकर।

सुन!
जिन खुशियों ने आज 
थामा है तेरा दामन
वो कुछ और नहीं
दुआएं हैं मेरी...
और ऐसे ही जो जितना भी
ग़म मिला है बरकत में तुझे
वो मेरे न होने का ही असर है
करीब तेरे।
क्यूंकि मेरी नज़दीकियां उसे 
भी फ़ना कर देती इक चुटकी में।

मैं, मैं, बस मैं ही तो हूँ
आंख से गिरी उन पानी की बूंदों में
जो आ जाती हैं बाहर
अक्सर तन्हाई में,
दिल के समंदर में उठे
ज्वार के कारण
और
मैं ही हूँ
लवों पे बिखरी
उस मुस्कुराहट में,
जो मेरा ख़याल आने पर
आज भी तेरे गालों को लाल
कर देती हैं।

तेरा अक़्स बेवफाई कर
हो सकता है जुदा तुझसे
पर मैं,
मैं अब भी उलझा हूँ
तुझ में कहीं
इक सुलझा हूआ सवाल बनकर।

Friday, October 24, 2014

खुरचन

अक्सर फ़िजूलखर्चियां
ख़त्म कर देती हैं
बेशकीमती चीज़ों की
अहमियत को।

और 
ये फ़जूलखर्चियां
यूंही ज़ाया कर देती हैं
बेहद खास चीज़ों को
जब वो
अपने फटे-पुराने
सड़े-गले रूप में 
मिलती है किसी को
उतरन बनकर
या किसी थाली में
बची हुई खुरचन बनकर।

अपने तमाम
वक्त, होश और जोश-ओ खरोश
से मैंने खर्च दिये हैं
अपने वे तमाम महीन जज़्बात
जिन्हें पाने की तमन्ना में
तुम मेरे दिल पर अर्जियां दे रही हो।

बेशक हो जाओगी तुम
मेरी ज़िंदगी का हिस्सा
पर बरहमिश,
इक हिस्सा ही रहोगी
न बन सकोगी
ज़िंदगी मेरी।
क्युंकि
यौवन के विहान में
जमकर की हैं मैंने भी
अहसास-ए-इश्क़
की फ़िजूलखर्चियां।

अब इस दोपहर
में तुम आये हो
तो तुम्हें झूठन के सिवा
और क्या मिल सकता है?
लो खरोंच लो!
तुम्हारे सामने पड़ी है
मेरे दिल की तश्तरी
और मिटा लो,
गर मिटा सको
तुम इससे क्षुधा अपनी।

जज़्बातों की बेशुमार
बरबादी और
अंधखर्चियों से
ये खजाना अब
तहखाने में बदल गया है।
और अब
दस्तक के लिये 
तुमने जो दर चुना है
वो दर तुम्हें
न दे सकता है कुछ भी.......
'चाह' की उतरन के सिवा,
'इश्क़' की खुरचन के सिवा।।

Friday, October 10, 2014

नासूर ज़ख्म

गर ज्वालामुखी से

निकल लावा जमीन तक पहुंचे
तो जमीं के नित स्पर्श से पा जाता है
वो मृदुता
पर रह जाये वो
यदि तह के नीचे ही कहीं
तो धधकता है शोला बनकर।


ये ज़मीं पे बिखरे
शैल,
गर अपरदित होकर
बिखरे जहाँ-तहाँ 
तो पा जाते हैं
वो ऋजुता,
पर उतर जाये गहरे
यदि ज़मीं के अंतस में
तो हो जाते हैं ठोस वे
अपनी काया बदलकर।

कुछ ऐसे ही
वदन के ज़ख्मों पर
पड़ जाये पपड़ी
रक्त का प्रवाह ठीक हुए बगेर,
तो हो जाते हैं
वो नासूर
हमें रह-रहकर तड़पाने के लिये।


जज़्बातों के छले जाने से
उभरी है जो पीड़ा,
गर निकल जाती वो
चंद अश्क़ों के बहाने से
तो न रूह में शोले जलते
न ज़ख्म नासूर बनते
और न घटती
मानवीय संवेदनाएँ मेरी।

पर ऐसा न हो सका
अब जो है
वो, वो नहीं है
जिससे तुम्हें प्यार था
जज़्बातों के मृदु शैल
कायांतरित हो
बन चुके है इक ठोस धातु।
और इनकी लगातार सड़न ने
ज़ख्मों को भी नासूर कर दिया...
सुनो!
अब मेरी खैर-खबर पूछ
उन ज़ख्मों पे पड़ी पपड़ी मत
उखाड़ा करो।

Sunday, September 21, 2014

कुछ ऐसी भी बेवफाई

भंवरा,
मोटी सी काष्ठ की दीवार को
काट कर भी अपना घर बना लेता है
पर नाजुक सी सुमन की पंखुरी को 
नहीं भेद पाता
और तोड़ देता है अपना दम
अंदर ही अंदर घुट कर..
पता है क्युं?
क्योंकि
उसे लगती है बेवफाई
यूँ उस पुष्प को चुभन देने में
जिससे उसने पराग पाया।


ये पतंगे,

बारबार तपने के बाद भी
उस दीपक की ओर ही डोलते हैं
और तोड़ देते हैं 
इसी तरह अपना दम
उस दीपक की लौ में जलकर
पता हैं क्युं?
क्योंकि
उन्हें लगती है बेवफाई
उस चिराग से दूर जाने में
जिससे पाते हैं वो आभा।


और कुछ यूं ही
वो जंगल का मृग
संगीत की धुन पर
हर बार फंस जाता है
शिकारी के चंगुल में
पर फिर भी नहीं छोड़ता
अपना संगीत प्रेम
पता है क्युं?
क्योंकि
उसे लगती है बेवफाई
जीवन के स्वार्थ पर
सरगम से दूरी बनाने पर।


बस कुछ युं ही
भले जीवन की 
अपनी ही व्यक्तिगत वजहों से
चुना है तूने अपना रास्ता
और
की है मुझसे भी गुहार
चुनकर अपना पथ
आगे बढ़ने की।
पर लाख तेरी याद में
तपने के बाद
और सहकर
अनंत पीड़ा भी
मुश्किल है तूझे भुलाना...
मुझसे बनाई गई दूरियों का
इक अरसा बीत जाने पर भी
तुझे छोड़ किसी और के बारे में
सोचना 
मुझे तुझसे बेवफाई लगती है।

Monday, August 18, 2014

झूठ का सच

कुछ किताबी पन्नों 
के पलटने से
और अनायास ही बादलों 
के गरजने से..
महज़ वो नहीं होता
जो आंखों में झलकता है।

बेमौसम पत्तों 
के झड़ने से
या फूलों के 
बिखरने से
बस वो नहीं मिलता
जो बगिया में महकता है।

गगन में खग
के उड़ने से
या लव पे अश्क़
गिरने से
सिर्फ वो नहीं रुकता
जो दिल में ठहरता है।

ये रब की हरकतें हरपल
बयां करती बहुत कुछ हैं...
पर न बंदा कहीं ऐसा
जो ये सबकुछ समझता है।

हंसी जितनी भी होंठो पे
हैं झूठी सभी फिर भी
ये इंसा जाने क्युं ऐसी
मुस्कुराहट 
को तरसता है।

सुनो! तुम भी ज़रा मेरी
इस अव्यक्त कथनी को
जो कहती सदा सब से
कि खुशियों के पथ पे अब,
ये मन
अक्सर टहलता है।

सुनो-समझो ज़रा मेरे
उस झूठ के सच को
जो दिल के टूटने पर भी,
कहता
कि न कुछ फर्क पड़ता है।

Monday, July 14, 2014

बूँद

हाँ! मिल तो सकता है
ये असीम वैभव,
चंद सतही प्रयासों से
पर उस वैभव से क्या
जो न मिटा सके पिपासा
अंतस की रत्तीभर भी...

हाँ! जुड़ तो सकते हैं
रिश्ते,
दुनिया के तमाम लोगों से
पर उन रिश्तों से क्या
जो दिखे चमकदार
पर हों खोखले
बिल्कुल अंदर से...

कुछ ऐसे ही
हम पा तो सकते हैं
प्यार, सम्मान और अपनापन
तनिक रुतबा पाके
पर इन तमाम जज़्बातों से क्या
जिनमें कोरी औपचारिकताओं
के सिवा और कुछ न हो...

कैसे बतायें तुम्हें कि
एक कतरा नम बिन्दु की प्यास
बिन्दु से ही बुझती है
सिन्धु से नहीं..
और धरती पे मौजूद असीम
पानी के बावजूद
चातक निहारता है बस 
स्वाति में गिरी
उस एक बूँद को
जो मिटाती है क्षुधा
उस पूरे जीवन की...

उस बूँद के अर्थ का आकलन
क्या कर सकती हैं
सहस्त्रों बौछारें मिलकर भी...
या फिर जुड़ सकता है
सिरा रुहानी जज़्बूातों का
एक मर्तबा बिखरने पर....


हाँ, सब ठीक हो सकता है
गर एक दफा फिर 

मिले वो 
'बूँद'


ज़रा देखो न बाहर!
बूँदें तो बहुत बरस रही हैं
 इस बरखा में,
पर न है वो स्वाति नक्षत्र
और न है इन बूँदों में नमी
जो मिटा सके चातक की प्यास।।

Sunday, June 15, 2014

खुश्क मानसून

याद है न
वो जेठ की गर्मी के बाद
अषाढ़ में गिरी बारिश की पहली बूँद
भिगो देती है जो तप्त भूमि को
कोई अमृत बनके
और उस अमृत को पा
खिलखिला उठती है धरती
किसी चंचल तरुणी की तरह...

सुर्ख चुभन भरी धूप के बाद
घिर आती है काली घटा
और छा जाता है नशा
हवा के झोंकों में भी...
बंजर हो चुकी ज़मीन
फिर ओढ़ लेती है हरी ओढ़नी
और इठलाती है किसी
नवविवाहिता स्त्री की तरह....

प्यास के मारे दूर पलायन कर चुके
सारे पंछी भी लौट आते हैं
अपने गलीचे में
और तमाम वृक्ष भी अपनी 
सरसराहट से मचाते है शोर
अहंकारी बनकर,
भुला देते हैं सारे दर्द
जो मिले थे ग्रीष्म के सख़्त रवैये से...

सबको कितनी खुशियां देता था
मानसून,
पर तब भी इस धरा, पवन, 
आसमाँ और कुदरत के बीच 
हमसे ज्यादा खुश   
और कोई न होता था
जो बादलों के घिरने पे
मौसम बदलने पे
हवाओं के चलने पे
बूँदों के गिरने पे
चहक उठते थे 
अपनी ही खुमारी में...

और थााम इक दूजे का हाथ
पकड़ लेना चाहते थे
बारिश की हर इक बूँद को
किसी नादान बच्चे की तरह..
अपनी आँखें मीच
खुले आसमां के नीचे
भिगो लेते थे अपने लवों को
उन बूँदों से...
और यकीन मानो
वो बूँदें,
लवों से उतरती हुई
सीधे ज़हन को तर करती थी
आहिस्ता-आहिस्ता...
या फिर कभी 
इकदूजे से सटके
करते थे जद्दोज़हद बचने की
बेरहम बरखा से
एक ही छाते के नीचे...


पर देखो!
अब भी घटा घिरती है
बिजली तड़कती है
हवाएं चलती है
बरखा मचलती है
और हर बार की तरह
वैसे ही मानसून
दस्तक देता है..
किंतु!
अब इसने भिगोना
बंद कर दिया है
और अब बारिश के बीच
चलते हुए भी मुझे
छाते की ज़रूरत नहीं होती.......

Thursday, June 5, 2014

भ्रम का सौंदर्य

बड़ी बेशर्म, खुदगर्ज
और चालबाज़
होती है ज़िदंगी
जो
बड़ी आसानी से पुराने
अहसासों
रिश्तों
और किये हुए वादों
को भुला बढ़ती चली जाती है आगे..

नये जज़्बात, संबंध और
कसमों की परतें
बड़ी आसानी से उन
पुरानी चीज़ों पे डिस्टेंपर पोत देती है
और नई नज़दीकियों के
कारण खुद ब खुद
ज़िंदगी में चमक आ जाती है
हाँ!
भले ही उस डिस्टेंपर के अंदर
पड़ी रूह की दीवार में सीड़न आती
रहती है आहिस्ता-आहिस्ता...


पर ज़िंदगी कहाँ किसी को 
हमसफर मान ठहरा करती है
मिलन का मकसद ही जुदाई है
और वही है उसका अंतिम सत्य
किंतु
उस मिलन के
सौंदर्य से जन्मी चमक में
अक्सर
हो जाते हैं हम अंधे कुछ ऐसे
कि हर मिलन की शुभ्रता
हमें शाश्वत जान पड़ती है
और यही भ्रम दुनिया के हर यथार्थ
से अधिक खूबसूरत लगता है....

अफसोस!
स्वप्न चाहे कितना ही सुंदर क्युं न हो
भ्रम चाहे कितना भी प्रशस्त क्युं न हो
छाया कितनी भी शीतल क्युं न हो
स्थायित्व का वास उनमें कभी नहीं होता
साहिल पे आई समंदर की लहरें
हाथों को छूने वाली बारिश की बूँदें
और ज़ुल्फों को बिखराते हवा के झोंके
चंद लम्हों को ही खुशनुमा करते हैं...

पर हम
उन लम्हों की बेसुधी में ही 
खुद को किसी ख़याली शिखर 
का शिरोमणि समझ
अपनी ज़मीं से कदम उठा लेेते हैं
और अंततः
जीवन सफ़र की इस रहनुमाई में 
नित बदलते जज़्बातों के रंगों से
हमारे हाथ कोरे ही रहते हैं
और इस बेइंतहा बदलाव के चलते
इक दिन 
उन हाथो से उम्मीद की लकीरें
भी मिट जाती हैं।।

Saturday, May 24, 2014

फिर इक बार...

चलो फिर करते हैं
कुछ बेबुनियाद सी बातें
जिनमें न कोई अर्थ हो
न भावों का गर्त हो
न लम्हों का विवर्त हो
भले भ्रम का ही आवर्त हो...

फिर इक बार चलते हैं
जज़्बातों के उस सफ़र में
जहाँ जागा दिल में प्यार हो
तुमसे मिलने का इंतज़ार हो
मुश्किल से फिर इज़हार हो
और लवों पे इकरार हो....

चलो पीते हैं फिर 
वो यादों भरा अर्क का प्याला
जहाँ बार-बार लड़ाई हो
तुमसे रुसवाई हो
हंसी और रुलाई हो
मिलन हो-जुदाई हो...

हाँ चलो न! छूते हैं फिर
उस बेसुधी के गगन को
जहाँ उनींदी आंखो से दिल परेशान हो
बेहुदी आदतें करती हैरान हो
रतजगों के बावजूद खुशनुमा विहान हो
नासमझ ख्वाबों का अपना आसमान हो....


पर क्या बाकई अब लौटना मुमकिन होगा
या बेरहम हक़ीकत भरा ही हरदिन होगा
अब लौटना है उसी भ्रम की धरा पे
जो हो समझ व वैभव के सख़्त यथार्थ से दूर
और हो उन्हीं नादानियो के रस से भरपूर
पर अफ़सोस हम अपने असल में ही
कुछ ऐसे जड़ गये
मानो जीते-जी ही 
किसी ताबूत में गड़ गये
मौकापरस्ती की लत में हो अंधे 
न जाने क्युं इतना, हम आगे बढ़ गये...
न जाने क्युं  इतना, हम आगे बढ़ गये।।।

Wednesday, May 14, 2014

दोहरी तहज़ीब

हाँ देखा है
उन शराफत के ठेकेदारों को
जो देते हैं नसीहतें
हत्या
लूट
बलात्कार और
ऐसे ही कुछ दूसरे अपराधों पर
बड़ी बेबाकी से....
और देखे जाते हैं
पैरवी करते इनके विरुद्ध
तमाम अदालतों, दफ़्तरों और
सरकारी आयोगों में जाकर...


पर मेरे सवाल हैं इन्हीं
सफेदपोशों से, 
जिनकी
बाहर से चमचमाती 
बासलीका मिनारों के अंदर ही होते है
सबसे ज्यादा गुनाह

जहाँ हर घड़ी बड़ी ख़ामोशी से होते हैं
जज़्बातों के क़त्ल,
मज़हब-बिरादरी और रुतबे की
कुछ बेबुनियाद सी दीवारें खड़ी कर..
और लूटा जाता है रिश्तों की इज़्जत को
ऐसी ही कुछ रस्मों-रिवाज़ के नाम पे
और हाँ,
अपने दोहरे अलामत के ज़रिये
बड़े ही संजीदा हो करते हैं
शराफ़त को ही खुले बाज़ार नंगा...
फिर भी इनकी कांख से
बहती है बरहमिश
शाइस्तगी की गंगा...

अफसोस!
ऐसे तमाम अपराधों के खिलाफ़
न कोई वकालत है
और 
न कोई अदालत
क्युंकि
इस जहाँ में
ऐसा कोई बाशिंदा ही
नज़र नहीं आता
जो हत्यारा न हो
और जिसने न किया हो 
किसी न किसी तरह
अपने या किसी गैर के
जज़्बातों का क़त्ल....

Wednesday, April 30, 2014

परछाईयाँ

वो संग थी, मेरे अंग थी
हर चाह पर, हर राह पर।
वो साथ थी, मेरे हाथ थी
हर श्वांस पर, हर आह पर।
फिर ख्वाहिशों की राह में,
एक मोड़ ऐसा भी मिला...
जहाँ अपने साये से भी
मिल गई तन्हाईयां
बेवफ़ा परछाईयाँ।।

उम्मीद थी, मेरी ईद थी
हर डगर पे, हर सफ़र में।
मेरी आन थी, पहचान थी
हर गाँव में, हर नगर में।
चलते हुए इस सफ़र मे
फिर नगर ऐसा भी मिला..
जहाँ मेरे साये ने ही मुझसे
कर ली यूँ रुसवाईयाँ
बेवफ़ा परछाईयाँ।।

मेरी जीत थी, वो गीत थी
हर हाल में, सुर ताल में।
वो ख्वाब थी, जवाब थी,
हर रात में, हर सवाल में।
फिर रात के इक ख़्वाब में
इक प्रश्न ऐसा भी मिला...
जहाँ अपने साये ने ही यूँ
दी बढ़ा बेताबियाँ
बेवफ़ा परछाईयाँ।।

Friday, April 18, 2014

तेरे हिस्से का वक्त

तुमने देखा ही होगा
अचानक 
नीरव गगन में बिजली का कौंधना,
चौंधिया जाती है जिससे निगाहें अक्सर

और युं ही
महसूस भी किया होगा
निस्तब्ध दुपहरी में
यकायक गर्म लपटों का चलना
कमबख़्त बिखेर देती है हमें..

और हाँ,
शांत पड़े समंदर में
सहसा उठी लहरों को भी
देखा ही होगा न
जो तीर पे खड़े इंसा को
चौंका देती है बिना इत्तला किये ही..

ये सब नज़ारे तो बस एक नज़ीर हैं
अपने रुहानी हालातों
को बयां करने के लिये
जो हालत तेरी यादों की 
जुंबिशों की वजह से हुई है

अक्सर मेरे रूह के आसमान
पर कौंधती है तेरी यादों की बिजली
अक्सर चलती है उन अहसासों की लपटें
जो जज़्बात मिले थे मुझे

तेर संग बिताये लम्हों से
और ऐसे ही उठती है
कुछ खयाली लहरें
मेरे दिल के समंदर में...
और यकीन मान
हर बार संभलने के बावजूद
मैं फिर बिखर जाता हूँ...

तुझे भुलाकर एकदम,
मैं बढ़ चुका हूँ आगे
और कर लिया है खुदको
मशरूफ इतना
कि अब रात-दिन का
हर एक पल बस मेरे
अपने लिये ही फना है
और न रह गई है फुरसत
मुझे
अब किसी बेबुनियाद
जज़्बात को लेकर

पर फिर भी सुन ऐ सितमगर!
तेरी याद,
वो ख़याल
और वो अधूरे जज़्बात
अब भी
मुझे बिखेरने में
कोई कसर नहीं छोड़ते...
और 
इस मशरूफियत के बावजूद
तेरे हिस्से का वक्त
अब भी
खाली गुज़रता है...

Sunday, April 13, 2014

सितम

रातों में जगाकर
यहाँ-वहाँ घुमाकर
और अपनी
ज़िदों से तड़पाकर
मुझे थकाते थे
वो
सितम ढाते थे..



क्या-क्या सुनाकर
बतिया बनाकर
आँसू बहाकर
मुझको सताते थे
वो 
सितम ढाते थे...

सितम उनके सहके
हम मजबूर हुए
और
थकके चूर हुए
पर फिर भी न वो माने
जो आ गये जताने
कि
ये भी कोई सितम थे
ये तो बहुत ही कम थे...


और...फिर आखिर
उसने असली सितम ढाया
जो हमको न बताया
और इससे पहले कि
ये खुद को हम बताते
वो युं ही चले गये
और..
अब वो न कोई सितम ढाते..

पर जाने से पहले..सुनते जाओ
ऐ सितमगर!
तुम्हारे यूं 
सितम ढाने का
न हमको था कभी ग़म..
पर तुम्हारा
सितम न ढाना ही है
सबसे बड़ा
'सितम'

Thursday, April 3, 2014

मेरा अर्धसत्य

रूह की
पुरानी पड़ चुकी
दिवारों की 
पपड़ियों को उखाड़ते हुए
वो जानना चाहते थे
पूरा सच...
गालों पर गड्ढे
बनाने वाली
नकली मुस्कान के
पीछे की हकीकत..

और बस इसलिये
युं ही उन्होंने
हमसे दिल लगाया
बहलाया
फुसलाया
और जब उनका
सुरूर हम पर छाया
तो फिर एक दिन
मुस्काते चेहरे पे
चुपचाप थूककर
चले गये वो
जानने के लिये
हमारी शख्सियत का
पूरा सच..

पर बेशर्म शक्ल ये
फिर भी मुस्काती रही
गड्ढे गालों के
दिखाती रही
और
लाख मशक्कत के बावजूद
भी वो जान पाये सिर्फ
'मेरा अर्धसत्य'

Thursday, March 13, 2014

बेअसर रंग

अबकी होली
हमने भी कुछ
उन्हें रंगने का मन
बनाया था
लफ्ज़ो की पिचकारी में
कुछ अहसासों का
रंग मिलाया था
अपने उन रंगों में अब
उनको खूब भिगोना था
उनको मुझ जैसा करना
बस,
इक ऐसा स्वप्न
सलोना था.…


यही सोच फिर हमने 
उनपे, दी उड़ेल 
हरी-भरी गुलाल
और
किया फिर उन रंगों से 
उनका बड़ा हाल-बेहाल
रंग-गुलाल-नीर-पिचकारी 
से रंगा उन्हें हमने 
जी-भरकर
बड़ी ख़ुशी थी हमें 
इसतरह,
उन्हें अपने रंगों में 
रंगकर… 

पर इस ख़ुशी का 
गुरूर 
तनिक ही देर में 
चकनाचूर हुआ
उनकी रूह को रंगे 
जो खुद से,
हर रंग इसमें 
मजबूर हुआ.… 
उन लफ्ज़ और अल्फ़ाज़ों ने 
बस,
किया ऊपरी लागलपेट 
लफ्ज़ो में डूबे जज्बातो की 
हुई बड़ी फिर मटियामेट

और इस तरह 
फिर इक फागुन 
गया हमारा कोरा बीत 
ज़िस्म भिगोया उन रंगों ने 
रूह रह गई किन्तु रीत।।।

Monday, February 24, 2014

अहसास और अल्फाज़

साथ हम चल रहे थे
इक सफ़र में
इक डगर में
गुस्ताखियों का सिलसिला
फिर युँ ही कुछ बढ़ने लगा
हमारे सर चढ़ने लगा.…
और
हो गई नादानियाँ
बढ़ गई बेचैनियाँ
और गलतफहमियाँ
फिर
रास्ते बदल गये
वास्ते बदल गये
और वो यूँ ही चले गये
खामोश लफ्ज़ो से भरे
अहसास हम कहते रहे
पर अल्फाज़ वो सुनते रहे.…

फिर रास्तों के बीच में 
इक कारवां ऐसा मिला 
जोड़ सकता था जो आके 
टूटा हुआ ये सिलसिला… 
पर,
धोखा यहाँ भी हो गया 
मौका मिला
वो खो गया
और
हो गये फिर हम जुदा 
वो हो गये मेरे खुदा 
पर मुझसे ही क्यु गुमशुदा 
वो मिले,
मिलकर चले गये 
हालात से हम छले गये.… 
और आखिर ये हो भी क्यों न!
खामोश लफ्ज़ो से भरे 
अहसास हम कहते रहे 
पर अल्फाज़ वो सुनते रहे.…

Thursday, February 13, 2014

वेलेन्टाइन

मोहब्बत का क़त्ल कर 
एक संस्कृति पनपी है 
जहाँ समाज है 
रिवाज़ है 
और ज़िंदगी मोहताज़ है 
महज 
कोरी वासना के लिए.… 
और इस संस्कृति में 
वो सब कुछ है 
जिसमे प्रेम आकार लेता है 
पर अफ़सोस 
गुम हो चुका है
एक अदद प्रेम ही कहीं।

एक सामीप्य को 'डेट' की संज्ञा दे
बस हवस की पूर्ति के
जतन जारी है.…
पर डेट के नाम पे
प्रेम की तो कही डेथ ही कर दी है
इस ज़माने ने...

त्याग, समर्पण और निस्वार्थ
वृत्ति के अर्थों को भुला
सिर्फ कोरी लीपापोती
ढोंग
और झूठा दिखावा ही
रह गया है प्रेम


प्रेम की क़ातिल 
इस संस्कृति  ने 
संवेदनाओ की मौत पे, 
महज़ खाना पूर्ति के लिए 
पकड़ा दिया है 
समाज को 
एक महक रहित गुलाब,
एक थोथा ग्रीटिंग कार्ड 
और वेलेंटाइन का लॉलीपॉप।।।  

Tuesday, February 4, 2014

अंकुर

(ये कविता मैंने अपने 18 वे जन्मदिन पर लिखी थी..आज अचानक पुरानी डायरी के पन्ने खंगालते हुए ये किसी तरह मिल गई..जिसे आपके साथ साझा कर रहा हूँ)
चित्र- सौ. उमेश सक्सेना

कौन कह सकता है कि अंकुर क्या है
जिसे खुद अंकुर भी नहीं जानता, उसे कोई और
कैसे कह सकता है कि अंकुर क्या है?

क्या है वो और कौन होगा, कौन जानता है
रहेगा भी या मिट जाएगा, कौन जानता है।
बन जाएगा बटव़ृक्ष या होगा इक छोटी कली
प्रतिकूलता में पला है या अनुकूलता उसको मिली।।
नहीं जानता वो लघू बीज कि उसका कल क्या है..
फिर कौन कह सकता है कि अंकुर क्या है?

खुशबू देगा जहाँ को या काँटों से युक्त होगा
हलाहल से भरा हो या ज़हर से मुक्त होगा।
निर्भर नहीं उसपे ये कि वो होगा कैसा
मिले जैसा खाद-पानी होगा वो वैसा।।
नहीं जानता वो कि उसका फल क्या है..
फिर कौन कह सकता है कि अंकुर क्या है?

क्या छुपा होगा कहीं मीठे फलों का राज उसमें
या कहीं ठहरा हुआ हो ठंडी हवा का साज उसमें।
सहेगा पतझड़ या फिर खिलेगा बहार में वो
ग़म के सूखे में पले या खुशी की बयार में वो।।
उसका हो निर्माण कैसा इसका प्रमाण क्या है...
फिर कौन कह सकता है कि अंकुर क्या है?

इस छोटे से बीज में यूं तो छुपा संसार है
थोड़े से खाद-पानी का फल मिले अपार है।
ये लघुतर अंश अनेकों अंकुरों को जन्म देता
इतना देने पर भी हमसे रंचमात्र ही कुछ लेता।।
हो बता सकते कि इस लेन-देन का राज क्या है...
तो फिर कौन कह सकता है कि अंकुर क्या है?

अब मैं बताता हूँ तुम्हें कि अंकुर क्या है
जिसे खुद अंकुर भी नहीं जानता कि अंकुर क्या है..
दो पहलु हो सकते हैं इस नन्हें से बीज के
पर अभी न भेद बनते इस अनोखी चीज़ है।
न काँटे होते इसमें न ही फूल की भी महक मिलती
न किसी को चुभन देता, न पत्र से ही पवन मिलती।।

मीठे फलों से युक्त न ही, कड़वाहट का लेश इसमें
न किसी की मदद करता, न किसी को क्लेश इसमे।
भले ही ये वृक्ष बनकर कैसा भी हो जायेगा
पर उस भविष्य का लेश भी इसमें न आने पायेगा।
वृक्ष में तो कदाचित् कपट देखी जा सके
पर ये तो सदा निरपेक्ष-निष्कपट जाना जायेगा।।

अंकुर प्रतीक निर्माण का, प्रतीक है ये जीवन का
ठहराव न इसमें कभी भी, प्रतीक है ये गमन का।
चलते चलो-बढ़ते चलो, इसका ही ये संदेश देता
न प्रीति हो न द्वेष हो, प्रतीक दुःख के शमन का।।

निःराग-निर्द्वेषता को, ये हमें कहता चले
सदा पर से उदासीन, ये बताता ही बढ़े।
पर देखो हालत ज़रा इस मायावी संसार की
सदाचार सबसे चाहते, पर इज़्जत न सत्-आचार की।।

लक्ष्य पे जाने की इच्छा, पर चाहते न कार्य करना
अंकुर बने बिना ही चाहें, बड़ा सा इक वृक्ष बनना।
पूछना है तो पूछो खुद से, इस संसार का रूप क्या है...
क्यूं 'अंकुर' को तंग करते, जो पूछते कि अंकुर क्या है????

Saturday, January 18, 2014

तेरा आधा-अधूरा जाना


आज फिर जब मैंने खंगाली
अपने ख़यालों की अलमारी
तो एक मर्तबा फिर
भरभरा के गिर पड़े
वो आधे-अधूरे जज्बात
मेरे पैंरों तले..
और मुझे फिर
ये अहसास हुआ 
कि मैं दबा हुआ हूँ
तेरे बोझ तले
क्युंकि पड़ा हुआ है
तेरा सामान,
बाकायदा
मेरे रूह की दीवारों में
जड़ी हुई
ख़यालों की अलमारी के अंदर
सुरक्षित।
कसम से
बहुत अखरता है
यूं तेरा आधा-अधूरा जाना


वो संग बिताये लम्हों की लाखों यादें
वो देखे हुए हज़ारों सपने
बड़ी-बड़ी कसमें और सैंकड़ों वादे
जस के तस सुरक्षित है
मेरे पास आज भी...
वो साथ ली हुई
चाय की चुस्कियां
वो आंसू और याद आने पे ली
गई हिचकियां
वो रूठ जाने पे तुझे
मनाने की कोशिशें
वो बचकानी हरकतें
और बेवकूफ ख़्वाहिशें...
उन अहसासों की इबारतों
को भी मिटाना है ख़ासा मुश्किल
जो दिल के पन्नों पे लिख दिये थे
तूने यूं ही घूमते फिरते..

लेकिन
फिर एक दिन
इन तमाम चीज़ों को छोड़कर
तूने कहा मुझे जाना होगा
और तेरे जाने पर भी
न था मुझे कोई ऐतराज़...
किंतु, तूझे जाना था पूरा
न कि आधा-अधूरा
पर अपना सारा सामान
यूं मेरे पास छोड़कर
तेरा चले जाना
कसम से बहुत अखरता है

और अब उस अलमारी में
पड़ा हुआ सामान
हर कभी यूं ही बाहर निकल
अनचाहे ही मेरे सामने आ
 कुरेद देता है
गहरे ज़ख्मों पे पड़ी हुई पपड़ी को
और फिर
चीख उठता हूँ मैं, दर्द के मारे...
पर अफसोस
वो चीख इतनी ख़ामोश होती है
कि मेरे सिवा कोई और
उसे सुनने की ज़हमत नहीं उठाता...
कसम से
बहुत अखरता है
तेरा आधा-अधूरा जाना।।।