Wednesday, November 5, 2014

तुझमें 'मैं'

हाँ भुला दो..
है छूट तुम्हें पूरी
कि अब तुम भुला ही दो।
अब तो धुंधली पड़ ही गई होंगी
वो स्मृतियां...
जिसमें तुम साथ थे
हाथों में लिये हाथ थे
रुहानी जज़्बात थे।

हाँ भुला दो न!
बार-बार ये जताने से अच्छा है
एक बार भुला ही देना
और कर देना
अजनबी मुझे
पीछे छूटे किसी दरख़्त की तरह।

तुम्हारी इन लाख कोशिशों के बावजूद
मैं फिर उभर आऊंगा..
जब पेड़ से पत्ता कोई झरेगा
जब हवा का झोंका कोई
ज़ुल्फ तेरी छूएगा 
या महफिल में कभी
गीत कोई बजेगा।

इन असंख्य हरकतों से
जो भी कुछ तेरी रूह में
उभरा होगा..
कोई अहसास बनकर
लिबास बनकर
या अनकही सी प्यास बनकर
वो 'मैं' ही हूँ।
क्यूंकि तेरे लाख आगे बढ़ जाने 
के बावजूद
मैं चस्पा हूँ तुझमें कहीं
इक खरोंच बनकर।

सुन!
जिन खुशियों ने आज 
थामा है तेरा दामन
वो कुछ और नहीं
दुआएं हैं मेरी...
और ऐसे ही जो जितना भी
ग़म मिला है बरकत में तुझे
वो मेरे न होने का ही असर है
करीब तेरे।
क्यूंकि मेरी नज़दीकियां उसे 
भी फ़ना कर देती इक चुटकी में।

मैं, मैं, बस मैं ही तो हूँ
आंख से गिरी उन पानी की बूंदों में
जो आ जाती हैं बाहर
अक्सर तन्हाई में,
दिल के समंदर में उठे
ज्वार के कारण
और
मैं ही हूँ
लवों पे बिखरी
उस मुस्कुराहट में,
जो मेरा ख़याल आने पर
आज भी तेरे गालों को लाल
कर देती हैं।

तेरा अक़्स बेवफाई कर
हो सकता है जुदा तुझसे
पर मैं,
मैं अब भी उलझा हूँ
तुझ में कहीं
इक सुलझा हूआ सवाल बनकर।

3 comments:

  1. वाह...बहुत बहुत सुन्दर !!

    अनु

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  2. समय के साथ साथ अक्स तो जुदा होना ही है ... पर यादें उनको कौन जुदा कर पाया है ...

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