Sunday, November 16, 2014

मुझमें 'तू'

जीवन की बासलीका दौड़ में

कुछ बेदस्तूरियां भी
होती है ठहरी
कहीं
हमें बताने को
कि
हम भी बिखरे हैं
औरों की तरह।

रस्मों-रिवाज़
और पूरी संजीदगी से
ये ज़िंदगी बिताने पर भी,
कुछ तो है
कैद इस सीने में
जो जीने नहीं देता..
मुझे पीने नहीं देता
उमंगो का प्याला।

बदन में चुभी फांस की तरह
न लौटी हुई सांस की तरह
उधड़े हुए लिबास की तरह
न मिटने वाली प्यास की तरह
जो रुका हुआ है मुझमें!
वो कोई और नहीं
तुम ही तो हो...

हाँ! वो तुम्ही तो हो
जिसने अपनी हिरासत में
मेरी रूह को रख
जिस्म को खुल्ला छोड़ा है।
तुम ही तो हो
जिसने अदृश्य तंतु
से खुद को बांध,
मुझसे
बस कहने को नाता तोड़ा है।

और बस इसलिये ही तो
आईने के सामने होता हूँ मैं
पर दिखते हो तुम,
अनजानी राहों पे भटकता हूं मैं
पर मिलते हो तुम।
यादों की लू में झुलसता हूँ मैं
पर खिलते हो तुम,
और कुछ ऐसे ही
खुले पड़े ज़ख्मों को भरता हूँ मैं
पर फिर भी रिसते हो तुम।।

कई कोस का फासला 
इकदूजे के बीच रखने के बावजूद
'तू'
ले रही है सांसे 
मेरे ही अंदर
किसी परजीवी की भांति..
और मुझसे मेरी ही शिनाख्त
छीनकर
हुई है पल्लवित
'तू'
कोई हाल ही में खिला
गुलाब बनकर।
अपनी बुद्धिमत्ता से 
यूं तो 
सुलझाये हैं कई सवाल मैंने
पर इक तू  है
जो थमी है मुझमें ही कहीं
कोई उलझा हुआ 
जबाव बनकर।।

2 comments:

  1. अंकुर साहब, मुझ में तू बिवता पढा। निहायत ही खूबसूरत और हस्सास । गोया कि सदियों का लामहदूद दर्द छिपा हो इसमें। भाषा और शिल्प दोनों के लहजे से पूर्ण । दिल में उठने और मचने वाले अनकही जज्बात और एहसासात को आवाज देती है। कबिता में मोहब्बत, अदावत, शिकायत, तोहमत और तीखे तंज के पुट का सुंदर समायोजन है। कहीं हिज्र् की तूफानी वेदना है तो कहीं कभी न बुझने वाली तशनिगी की कसक, जो झकझोर देती है अंदर तक। बार—बार पढने और उस वेदना में गोते लगाने को मजबूर करती है।

    रस्मों-रिवाज़
    और पूरी संजीदगी से
    ये ज़िंदगी बिताने पर भी,
    कुछ तो है
    कैद इस सीने में
    जो जीने नहीं देता..
    मुझे पीने नहीं देता
    उमंगो का प्याला।
    और मुझे सोने नहीं देती,
    बेखबर होकर
    खुद से और तुझ से.....

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  2. कविता कविता न हो के जीती जागती जीवन यात्रा सी बन गयी है .. जिसमें सिख है, दुःख है, पीड़ा है, हास्य है ... कफस है प्यास है फांस है ...
    कुल मिला के बहुत ही लाजवाब है ...

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