Monday, August 18, 2014

झूठ का सच

कुछ किताबी पन्नों 
के पलटने से
और अनायास ही बादलों 
के गरजने से..
महज़ वो नहीं होता
जो आंखों में झलकता है।

बेमौसम पत्तों 
के झड़ने से
या फूलों के 
बिखरने से
बस वो नहीं मिलता
जो बगिया में महकता है।

गगन में खग
के उड़ने से
या लव पे अश्क़
गिरने से
सिर्फ वो नहीं रुकता
जो दिल में ठहरता है।

ये रब की हरकतें हरपल
बयां करती बहुत कुछ हैं...
पर न बंदा कहीं ऐसा
जो ये सबकुछ समझता है।

हंसी जितनी भी होंठो पे
हैं झूठी सभी फिर भी
ये इंसा जाने क्युं ऐसी
मुस्कुराहट 
को तरसता है।

सुनो! तुम भी ज़रा मेरी
इस अव्यक्त कथनी को
जो कहती सदा सब से
कि खुशियों के पथ पे अब,
ये मन
अक्सर टहलता है।

सुनो-समझो ज़रा मेरे
उस झूठ के सच को
जो दिल के टूटने पर भी,
कहता
कि न कुछ फर्क पड़ता है।

8 comments:

  1. ये रब की हरकतें हरपल
    बयां करती बहुत कुछ हैं...
    पर न बंदा कहीं ऐसा
    जो ये सबकुछ समझता है।

    उपर्युक्त पंक्तियों ने मन मोह लिया जनाब...........

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  2. Beautiful poem, Ankur. Last two verses are my favorite.

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  3. सुनो-समझो ज़रा मेरे
    उस झूठ के सच को
    जो दिल के टूटने पर भी,
    कहता
    कि न कुछ फर्क पड़ता है।
    ...वाह...

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  4. बेहद भावपूर्ण रचना, बधाई.

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  5. सुंदर शब्द संयोजन, भावपूर्ण रचना. चित्र भी बहुत सुंदर !

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  6. गहरी बात सहज कह दी ... झूठ के सच को समझ तो हर कोई जाता है पर अनजान बना रहता है ... बहुत लाजवाब अर्थपूर्ण रचना ...

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