Sunday, April 13, 2014

सितम

रातों में जगाकर
यहाँ-वहाँ घुमाकर
और अपनी
ज़िदों से तड़पाकर
मुझे थकाते थे
वो
सितम ढाते थे..



क्या-क्या सुनाकर
बतिया बनाकर
आँसू बहाकर
मुझको सताते थे
वो 
सितम ढाते थे...

सितम उनके सहके
हम मजबूर हुए
और
थकके चूर हुए
पर फिर भी न वो माने
जो आ गये जताने
कि
ये भी कोई सितम थे
ये तो बहुत ही कम थे...


और...फिर आखिर
उसने असली सितम ढाया
जो हमको न बताया
और इससे पहले कि
ये खुद को हम बताते
वो युं ही चले गये
और..
अब वो न कोई सितम ढाते..

पर जाने से पहले..सुनते जाओ
ऐ सितमगर!
तुम्हारे यूं 
सितम ढाने का
न हमको था कभी ग़म..
पर तुम्हारा
सितम न ढाना ही है
सबसे बड़ा
'सितम'

18 comments:

  1. बहुत खूब !! मंगलकामनाएं . . . .

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    1. शुक्रिया सतीशजी..

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    1. जी आभार..आता हूँ आपके द्वारे।।।

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  3. वाह...बहुत खूब...

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    1. धन्यवाद कैलाश जी...

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  4. शब्दों के जाल मे क्या खूब पिरोया है झलकियों को...आपकी यह रचना काबिलेतारीफ |

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  5. उनके सितम भी कहाँ सितम थे ... आये थे तो कर ही जाते कुछ सितम ... कुछ फूल हो जाती जिंदगी ... बहुत खूब ...

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    1. सही कहा नासवा जी..शुक्रिया प्रतिक्रिया के लिये...

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  6. सुंदर और भावपूर्ण...

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  7. This comment has been removed by the author.

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