Sunday, December 7, 2014

सर्दियां

घरों से निकल गये हैं
बाहर सभी
अलाव, सिगड़ियां
और पेटियों में बंद पड़ी
कम्बल-रजाई।



कुहासे ने ले लिया है
सूरज की तीक्ष्ण आभा को भी
अपनी श्वेत धुंध के आगोश में।
और
पद्मपत्रों पर पड़ी
ओस की बूंदे भी
बन गई है सख़्त
बदलकर
बर्फीले मोतियों में।
पाला, तुषार और
बेहिसाब बर्फवारी...
कई उम्मीदों को भी
ढक देती हैं
ज़मीं की हरितमा की तरह।

सच,
मासूम से दिखने वाली
ये सर्दियां
भी बड़ी बेरहम मिज़ाज की होती हैं।


पर मेरे लिये नहीं,
क्योंकि मेरे अक्स में
दहक रहा है अलाव
तेरी हस्ती का।
और गुजरे लम्हों की
आंच,
सुलगा देती है मुझे
रह-रहकर।



वो तेरे सिरहाने
होने वाले मेरे हत्थु-तकिये
फिर करना नुमाईश
बांहों के कम्बल की।
और ऐसे ही वो खरीदे हुए
ढीले स्वेटर
जो एक में ही देते थे
पनाह हम दोनों को।
अब भी,
दूर से ही
मेरी सर्दी भगाते हैं.....


'सर्दियां'
जमाने को जमाती होंगी
अपनी सर्द लहरों से...
पर मैं,
बीते लम्हों से मिली
यादों की तपन से
हर पल पिघलता हूँ।

8 comments:

  1. aise hi pighalte raho sahab.....umda prastuti......

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  2. 'सर्दियां'

    जमाने को जमाती होंगी

    अपनी सर्द लहरों से...

    पर मैं,

    बीते लम्हों से मिली

    यादों की तपन से

    हर पल पिघलता हूँ।
    ....वाह...बहुत ख़ूबसूरत अहसास...प्रभावी अभिव्यक्ति...

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  3. बहुत ही गहरा एहसास ... कलम की धार तीखी होती जा रही है आपकी ...
    हर पल पिघलती हुयी नमी कहीं लावा न बन जाए ...

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  4. सर्दिया तो बस मुट्ठी की गुलाम है
    मुट्ठी बंद कर बाहो में समेत कर तो देखो

    पधारे

    www.knightofroyalsociety.blogspot.in में

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  5. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति....

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  6. हाय ये सर्दियां और उनकी यादों के अलाव...........

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  7. और हाँ रचना खूबसूरत।

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  8. वाह। आपकी रचनाये सृजन के लिए प्रेरित करती रहीं हैं. बहुत सुन्दर और सार्थक रचना.

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