Wednesday, May 14, 2014

दोहरी तहज़ीब

हाँ देखा है
उन शराफत के ठेकेदारों को
जो देते हैं नसीहतें
हत्या
लूट
बलात्कार और
ऐसे ही कुछ दूसरे अपराधों पर
बड़ी बेबाकी से....
और देखे जाते हैं
पैरवी करते इनके विरुद्ध
तमाम अदालतों, दफ़्तरों और
सरकारी आयोगों में जाकर...


पर मेरे सवाल हैं इन्हीं
सफेदपोशों से, 
जिनकी
बाहर से चमचमाती 
बासलीका मिनारों के अंदर ही होते है
सबसे ज्यादा गुनाह

जहाँ हर घड़ी बड़ी ख़ामोशी से होते हैं
जज़्बातों के क़त्ल,
मज़हब-बिरादरी और रुतबे की
कुछ बेबुनियाद सी दीवारें खड़ी कर..
और लूटा जाता है रिश्तों की इज़्जत को
ऐसी ही कुछ रस्मों-रिवाज़ के नाम पे
और हाँ,
अपने दोहरे अलामत के ज़रिये
बड़े ही संजीदा हो करते हैं
शराफ़त को ही खुले बाज़ार नंगा...
फिर भी इनकी कांख से
बहती है बरहमिश
शाइस्तगी की गंगा...

अफसोस!
ऐसे तमाम अपराधों के खिलाफ़
न कोई वकालत है
और 
न कोई अदालत
क्युंकि
इस जहाँ में
ऐसा कोई बाशिंदा ही
नज़र नहीं आता
जो हत्यारा न हो
और जिसने न किया हो 
किसी न किसी तरह
अपने या किसी गैर के
जज़्बातों का क़त्ल....

9 comments:

  1. संवेदनशील भाव...... आज के परिवेश का सच यही है

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  2. अपने आस पास बहुत कुछ देखते हुए भी बहुत कुछ अनदेखा कर लिया जाता है
    बहुत अच्छी प्रेरक रचना

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  3. इस दोहरापन के पीछे भी कितना दोहरापन छिपा होता है..

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  4. Respected Shri Ankurjee,
    I am not a language expert but a technical person. I can understand the narration only and may not understand the central metaphor. If I find your poems so interesting, how interesting these are for the language experts,
    I beg your excuse for commenting in english.

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  5. खूबसूरत शब्द संयोजन....!!!

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