Thursday, December 26, 2013

हाँ! कैलेण्डर बदल रहा है...

उस फुटपाथ किनारे
बैठी बूढ़ी का बदन
अब भी अधनंगा है
उस मौसम की मार
झेले किसान की आंख
से बहती अब भी गंगा है...
हाँ कुछ कानून और
सरकारी फंड
औरत को सुरक्षा देने आये हैं
पर कमबख़्त ये भी
उसकी अस्मिता को लुटने
से न बचा पाये हैं...
वो बेरोजगार लड़का
अपनी जेब में आज भी
सेल्फास लेके निकलता है
समाज़ के दकियानूसी
रिवाज़ों का मिजाज न
तनिक भी बदलता है...
और सुना है कि
उन भ्रष्ट लोगों को भी
क्लीन चिट मिल गई है
मानो न्याय की इमारत ही
अपनी जमीन से हिल गई है
कुछ भी तो नहीं बदला
वही शासन
वही आसन
वही लोग और
कुछ वैसे ही रोग

अरे हाँ!!!
ज़रा दीवार पे तो देखो
कैलेण्डर बदल रहा है...
चलो मिलके जश्न मनाते हैं.....

18 comments:

  1. अरे हाँ!!!
    चलो मिलके जश्न मनाते हैं.....
    वाह कितने गहरे अहसासों को पिरोया है ………बहुत सुन्दर

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  2. गहरे अहसास............बहुत सुन्दर.........

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  3. अपने मन की अहसासों सुंदर की प्रस्तुति ...!
    Recent post -: सूनापन कितना खलता है.

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  4. सच है, कहीं कुछ नहीं बदला केवल कलेंडर का पन्ना बदला !
    नई पोस्ट मेरे सपनो के रामराज्य (भाग तीन -अन्तिम भाग)
    नई पोस्ट ईशु का जन्म !

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    1. जी आता हूँ आपके आंगन में...शुक्रिया प्रतिक्रिया हेतु

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  5. सही कहा आपने

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    1. शुक्रिया ओंकार जी।।।

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  6. बहुत ही लाजवाब रचना ...
    :-)

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  7. धन्यवाद आपका...

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  8. जी धन्यवाद आपके चिट्ठे में जगह देने के लिये।।।

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  9. बदलते रहेंगे केलेंडर और नेता भी ऐसे ही ... पर नहीं बदलेगा ये समाज ये समय ... जो इंतज़ार कर रहा है आदमी के आदमी होने का ...

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    1. सही कहा दिगम्बरजी...इन हालातों के बदलने की उम्मीद पाले हुए ही जिंदगी गुज़र जाती है..शुक्रिया आपकी प्रतिक्रिया के लिये।।।

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