Tuesday, January 13, 2015

कविता नहीं है ये

इन पन्नों पे
बिखरे पड़े ये अल्फाज़
जिन्हें तुम शायरी 
समझ
मेरी तारीफ में
क़सीदे गढ़ते हो...
शायरी नहीं है ये,
ये तो हैं वो रिसते 
हुए ज़ख्म
जिसे पोंछा था
मैंने कागज़ों से।

ये जिन गीतों
को सुन
बताते हो मुझे
तुम,
प्रवर्तक कोई
साहित्य की दिव्य 
प्रथा का...
गीत नहीं हैं ये,
ये तो हैं वो
सिसकियां
जो अक्सर
मचाती हैं शोर
उदास पड़े वीरानों में।

इन हाथों से लिखी
वो हर इक इबारत
जो करती थी पैदा
गुमान,
तुममें भी मेरी
होशियारी का...
क़सम से!
वो इबारतें
नहीं हैं प्रतीक,
किसी
तीक्ष्ण प्रज्ञा का।
बस छींटे हैं वो
उस कलम की स्याही के
जिसे आंसुओं की 
दावात में डुबो के
भरा था मैंने।

अच्छा ये नहीं,
कि निकल जाती है
पीड़ा,
इन अल्फाज़ों से...
अच्छा  तो तब होता
जब कोई पीड़ा ही
 न होती।
यकीन मानो!
इन गीतों, मिसरों
और कविताओं
पे बजने वाली
तालियां,
रूह के सन्नाटों
को और गहरा ही बनाती हैं।

10 comments:

  1. बहुत सुन्दर .कभी-कभी अल्फाज काफी कुछ कह जाते हैं.
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  2. बृ
    बेहद उम्दा सर

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  3. अंकुर जी बेहद सुन्दर रचना ..बधाई और मंगलकामनाएँ

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  4. ये अलफ़ाज़ ही तो हैं जो बिना बोले कितना कुछ बोल जाते हैं ... और सनाते में भी ले जाते हैं ...

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  5. बहुत सुंदर प्रस्तुति.

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  6. इन अल्फाज़ों से...
    अच्छा तो तब होता
    जब कोई पीड़ा ही
    न होती।
    ..दर्द भी है ये और दवा भी ..बस वक्त का फेर रहता है ..
    बहुत बढ़िया

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  7. ज्यों वीराने में गूंजता हो कुछ तो शब्द बनता है...

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  8. मन के भावो को बहुत ही सादगी और सुन्दरता से व्यक्त किया है..बहुत ही खुबसूरत रचना... :-)

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  9. इन गीतों, मिसरों
    और कविताओं
    पे बजने वाली
    तालियां,
    रूह के सन्नाटों
    को और गहरा ही बनाती हैं।
    ...वाह..बहुत मर्मस्पर्शी उत्कृष्ट अभिव्यक्ति...

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