Wednesday, July 31, 2013

On My 25th Birth-Day

उलझनें बनी हुई, फासले भी जस की तस
मंजिलों को छोड़, आगे रास्ता है बढ़ गया।
देखते ही देखते ये साल भी गुज़र गया......

  

चल रही है श्वांस, किंतु जिंदगी थमी हुई
रूह की दीवार पर, धूल है जमी हुई।
दाग गहरा छोड़के, देखो! ज़ख्म भर गया।।
देखते ही देखते.....

   


रंजिशों की मार से, जाने क्या है हो गया
मिल गया जवाब पर, सवाल ही है खो गया।
वक्त को आगे बढ़ा, वो पल वहीं ठहर गया।।
देखते ही देखते......




हो रहा है मिलन, पर बढ़ रहे शिकवे गिले
चीख सन्नाटों की है, सूनी पड़ी पर महफिलें।
ख्वाहिशों का दफन, देखने सारा शहर गया।।
देखते ही देखते.....




 होंठ पे मुस्कान है, पर आंख में आंसू भरे
मौत की आहट से ये, मासूम दिल क्युं न डरे?
झोपड़ी खड़ी रही और महल बिखर गया।।
देखते ही देखते....



 दिल की दुनिया ढूंढने में, खुद को हम खोने लगे
परम्परा के नाम पर, रुढियां ढोने लगे।
मर्ज़ की दवा थी वो, पर रग़ों में ज़हर गया।।
देखते ही देखते.....




रास्तों को खोजता, जाने क्या-क्या सोचता, हूं मैं वही खड़ा हुआ
ज़ख्म सीने में लिए, गिरते संभलते हुए, मजबूरी में पड़ा हुआ।
इस भोर में सूरज निकल, इक दिन का क़त्ल कर गया।।
देखते ही देखते ये साल भी गुज़र गया...........
मंजिलों को छोड़, आगे रास्ता है बढ़ गया
देखते ही देखते.......


अंकुर 'अंश'

Tuesday, July 23, 2013

औरत

घर मे
मेरी सास को,
ऑफिस में
बॉस को..
ऐतराज है
मेरी झपकियों से
ऐतराज़ है
मेरी सिसकियों से
क्यूँ?
क्योंकि उन्हें
परवाह है मेरी...
जी हाँ,
परवाह है 
मेरे काम की
न कि आराम की
बस! इसलिये
ऐतराज है उन्हें
मेरी झपकियों से
मेरी सिसकियों से।

मायके में
ससुराल में
गुजरते हुए
हर साल में
बस बढ़ती रहती है
मेरी बेचैनियाँ
मैं हूँ बस एक
'रोबोट'
इस जहाँ के लिये
जिसमें न हैं
अहसास,
तमन्नाएँ,
न ही भावनाएँ कोई..
और करना है अपना काम
बिना थके
बिना रुके
बिना झुके
और बस! इसलिये
ऐतराज है उन्हें
मेरी सिसकियों से
मेरी झपकियों से।

कभी मन की चुभन
कभी दुखता बदन
न सोने देता मुझे
और कभी गर
लग भी जाये आँखे
तो सैंया जगा देते हैं
रातों में
लगा लेते हैं अपनी 
बातों में
और फिर,
गुज़र जाती है
मेरी एक और रात
बिना सोये
करवट बदलते
ढूंढती अपनी हस्ती
अपने मन की बस्ती
जहाँ लोग ये माने
कि
औरत बदन के परे भी
कोई चीज़ है....

Thursday, July 18, 2013

ख़याल....

खैरियत ख़फा है अब हमसे
अब तो यहाँ हाल, बेहाल है..
जवाब न अब किसी एक का
हुए खड़े कई सवाल हैं।
न मिलकर भी बिछड़ने का
होता अक्सर मलाल है..
तुम्हें खोने से भी भयंकर
तुम्हें खोने का खयाल है।।

बंद होठों से भी अक्सर, होती बातें हजारों
बहके कदम अब इन्हें संभालों न यारों..
दिमाग है दिवाना और दिल में सलवटें हैं
नींद न है बिस्तरों पे बस खाली करवटें हैं।
ये कैसी खुशमिजाजी, जिसमें
खुशी है कम और दर्द विशाल है..
तुम्हें खोने से भी भयंकर
तुम्हें खोने का खयाल है।।

मंजिल वही है लेकिन रस्ते खो गये हैं
जागे हैं सपने सारे, पर हम ही सो गये हैं
ये तिलिस्मी नीर कैसा
पीके जिसे प्यास बढ़ रही है
ये शिखर उत्तंग कैसा
छूके जिसे श्वांस चढ़ रही है।
तड़प-बेचैनी-बेखुदी बस
यही इस जज़्बात की मिशाल है
तुम्हें खोने से भी भयंकर
तुम्हें खोने का खयाल है।।
खैरियत ख़फा है अब..........

Saturday, July 13, 2013

मैं कोई कवि नहीं....

कविता करना
कोई मजाक नहीं,
जो हम-से नौसिखिए कर सकें
ये तो एक साधना है,
जो संगिनी है साधकों की
बेचैन हूँ मैं,

पर मैं कोई कवि नहीं।।

जब चरम तन्हाईयों के दौर में
दोस्त हो जाते हैं दूर
तो कागजों से बातें करता हूँ
अल्फाज़ों के जरिये,
पर मैं कोई कवि नहीं।।

जब भर जाता है दिल,
दर्द से लबालब
और छलकने लगता है
रूह के प्यालों से
शराब बनकर,
तो फैल जाता है वो
इन कागज़ों की जमीं पर,
पर मैं कोई कवि नहीं।।




जब अपनों की दग़ा से
प्रियतम की झूठी वफ़ा से
जगता है मन में रोष
तो इन कागज़ों के समंदर में
शब्दों के पत्थर फेंक देता हूँ,
पर मैं कोई कवि नहीं....

मुझे नफरत है...

वे
हर रात
फड़फड़ाते हैं मेरी
दिल की दीवारों पर
चमगादड़ बनकर,
और
उस फड़फड़ाहट के शोर में
नहीं सो पाता मैं,
अपने सपनों के चलते
मुझे नफरत है अपने सपनों से.....
कहीं कुछ पाने के
बहुत दूर जाने के
इस दुनिया पे छाने के
सपने ही हैं,
जो जगाये रखते हैं मुझे
बस, इसलिये ही
मुझे नफरत है अपने सपनों से....
इन सपनों में समाई
आस की ज्वाला,
जलाती है मुझे
हर पल-हर छिन
एक प्यास
जो बुझती न कभी,
बस बड़ती जाती
हर पल-हर दिन
और फिर...
इन सपनों की आस में,
न मिटने वाली प्यास में,
गुजर जाती है
मेरी एक और रात
यूँ ही
बिना सोयो-करवट बदलते...
मुझे नफरत है अपने सपनों से...

Friday, July 12, 2013

लम्हों का हिसाब

जिन लम्हों में मैं कुछ कर सकता था
पढ़ सकता था
आगे बढ़ सकता था...
उन अमूल्य लम्हों में
प्रियतम!
मैंने तुमको याद किया
उन लम्हों को बरबाद किया
तुमको पाने के खातिर 
रब से तुमको फरियाद किया...
सोते-जगते बस तू ही तू
मैं जीकर भी जिंदा न था
उड़ता था तेरे ख्यालों में
उड़कर भी पर परिंदा न था...
तुझमें खोकर,
तुझसा होकर..
इस वक्त को मैनें आग किया
उन लम्हों को बरबाद किया...
पर अब क्या है?

न तुम ही हो 
न वक्त वो लौट के आयेगा
दरिया में भटका ये पंछी
आखिर तट कैसे पायेगा..
मैं ठगा गया
दोनों तरफा,
न वक्त है वो
न संग तू मेरे..
बस एक प्रश्न ही रहा साथ,
जो पूछे मेरी दिल की किताब-
क्या दे सकती हो तुम मुझको
उन अतुल्य-अनुपम
गुजरे
हुए- "लम्हों का हिसाब"

हाँ ! मुझे डर लगता है....

भले मैं निडर दिखने की लाख कोशिशें करुं
पर अक्सर मेरा भी मन सहरता है
हाँ, मुझे डर लगता है।
नफरत से नहीं,
मोहब्बत से..
बगावत से नहीं
खिलाफत से..
बेरुखी से नहीं वादों से,
लोगों के मीठे इरादों से
अक्सर मन सहर उठता है
हाँ, मुझे डर लगता है।।
दुश्मनों से लड़ने की तैयारी है पहले से
मेरी मुश्किल है दोस्तों से कैसे निपटा जाये
बद्दुआओं को सहने का तो दम रखता हूँ
उलझन है कि दुआओं को कैसे सहा जाये..
प्रियतम,
तुम्हारे गुस्से से नहीं
मीठी बातों से
अक्सर मन सहर उठता है
हाँ, मुझे डर लगता है।।
दर्द में कहाँ ताकत थी मुझे तकलीफ दे,
दवा ने मेरी बेचैनी को बढ़ाया है..
गैरो की बेरुखी क्या सता सकती मुझे,
अपनों की मोहब्बत ने जितना सताया है..
इंसान होके इंसान से क्या डरना
लेकिन बात खुदा की हो
तो अक्सर मन सहर उठता है
हाँ, मुझे डर लगता है।।
भले मैं निडर दिखने.........