Tuesday, September 20, 2016

सरकता क्षितिज

मेरी बेइन्तहां तमन्नाओं
की बयार में इक तू भी थी शामिल।
तुझसे नहीं थी तमन्नाएं सब
तू बस एक थी उन तमन्नाओं में...

इन हसरतों का सैलाब
आज का नहीं
ये तो उन असंख्य जन्मों से है
मेरे पीछे
जिनका क्षितिज
खोजते-खोजते
मैं आ पहुंचा हूँ यहाँ भी।

ये हसरतें कई मर्तबा
पूरी हो जाने के बाद भी
बरकरार रहीं हैं ज़ेहन
के किसी कोने में
अपना रूप बदल-बदलकर।

कभी दौलत की, कभी शोहरत की..
कभी संयोग की तो कभी किसी वियोग की भी
हसरतें ही तो हैं ये सब।
जो बच्चे होने पर खिलौनों के लिये
तो बड़े होने पर रिश्तों के लिये मचल उठती हैं...
और फिर घिर जाता हूँ मैं
इन असीम तमन्नाओं के भंवर में
कि जिनसे घिरा होने पर
मुझे, बंद हो जाता है
दिखना
अपना ही वजूद।


इस बेलगाम दौड़ में

सदा
रास्तों के बीच ही
मैं नजर आता हूँ....
चलता हूँ जितने कदम भी,
पर मंजिल को
खुद से उतने ही दूर पाता हूँ।

दूर किनारे पर कहीं
दिखता है मिलन
जमीं और आसमाँ का जो हमें
वो धोखा महज़ नज़रों का नहीं
नजरिये का भी है दरअसल।
जो हम उस जोड़ को छूने
की हसरत लिये
भागे जाते हैं क्षितिज की ओर।

इस जोड़ को पाने की तमन्ना संग
मैं जितना भी दौड़ां
जितना भी भागा
उतना ही दूर
सरकता गया 
वो 'क्षितिज'


2 comments:

  1. बहुत सुन्दर ये मरीचिका ही जीवन में नए रंगों का आयाम भरता है......

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  2. वाह अंकुर बहुत बढ़िया। इस जोड़ को पाने की तमन्ना संग... बहुत अच्छा। तमन्नाओं का क्षितिजों से परिणय...

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