Saturday, September 24, 2016

एक और जनम

स्वपन से बंधा हुआ
बढ़ चला तना हुआ
प्रवाह को न देखता
जाने क्या-क्या सोचता
वक्त यूं फिसल गया
हाथ से निकल गया
पर बने रहे भरम।
लो चला इक उर जनम।।

आस की जकड़ रही
बस, व्यक्त की पकड़ रही
दृश्य के अवभास में
अनकही इस प्यास में
अव्यक्त ओझल ही रहा
मानस ये बेकल ही रहा
न कट सके किंचित करम।
लो चला इक उर जनम।।

प्रेम की डगर मिली
संबंध की भंंवर मिली
'रस सिंधु' जिसे मैं समझ
लो गया उसमें उलझ
कल्पना के लोक में
झूठे हरष और शोक में
करता रहा यूं ही भ्रमण।
लो चला इक उर जनम।।

मोह की सुरा जो ली
टूटती शिरा रही
यूं नजर के सामने
जिसको चला मैं थामने
न वो झुक सका
न रुक सका
टूटती गई शरम।
लो चला इक उर जनम।।

Tuesday, September 20, 2016

सरकता क्षितिज

मेरी बेइन्तहां तमन्नाओं
की बयार में इक तू भी थी शामिल।
तुझसे नहीं थी तमन्नाएं सब
तू बस एक थी उन तमन्नाओं में...

इन हसरतों का सैलाब
आज का नहीं
ये तो उन असंख्य जन्मों से है
मेरे पीछे
जिनका क्षितिज
खोजते-खोजते
मैं आ पहुंचा हूँ यहाँ भी।

ये हसरतें कई मर्तबा
पूरी हो जाने के बाद भी
बरकरार रहीं हैं ज़ेहन
के किसी कोने में
अपना रूप बदल-बदलकर।

कभी दौलत की, कभी शोहरत की..
कभी संयोग की तो कभी किसी वियोग की भी
हसरतें ही तो हैं ये सब।
जो बच्चे होने पर खिलौनों के लिये
तो बड़े होने पर रिश्तों के लिये मचल उठती हैं...
और फिर घिर जाता हूँ मैं
इन असीम तमन्नाओं के भंवर में
कि जिनसे घिरा होने पर
मुझे, बंद हो जाता है
दिखना
अपना ही वजूद।


इस बेलगाम दौड़ में

सदा
रास्तों के बीच ही
मैं नजर आता हूँ....
चलता हूँ जितने कदम भी,
पर मंजिल को
खुद से उतने ही दूर पाता हूँ।

दूर किनारे पर कहीं
दिखता है मिलन
जमीं और आसमाँ का जो हमें
वो धोखा महज़ नज़रों का नहीं
नजरिये का भी है दरअसल।
जो हम उस जोड़ को छूने
की हसरत लिये
भागे जाते हैं क्षितिज की ओर।

इस जोड़ को पाने की तमन्ना संग
मैं जितना भी दौड़ां
जितना भी भागा
उतना ही दूर
सरकता गया 
वो 'क्षितिज'