Saturday, April 9, 2016

ज़िद, जुदाई और हम

बड़ा कमजोर होता है
अहसास,
जो रिश्तों को जोड़ता है
जो चाहतों का रुख
संबंधों की तरफ
मोड़ता है।

बड़े कमजोर होते हैं
बंधन,
जो दो हाथो को थामते हैं
जो दिलों के तार को
कच्चे धागों में
बांधते हैं।

अक्सर
ये बंधन
ये अहसास
ज़िंदगी की उलझनों में
रास्तों की अड़चनों में
टूट जाते हैं...
जाने कैसे रिश्तों का साथ
अपनों के हाथ
आपसी टकरावों में
छोटे से घावों में
छूट जाते हैं।

पर गुजारिश है तुमसे
ज़िद छोड़ो ऐ दोस्त!
कोई अपना गर यूँ
रुठेगा तुमसे
तो भुला सारे शिकवे
मना लो उसे दिल से...
क्युंकि...ज़िद की इस जंग में...अक्सर।
हम हार जाते हैं
और 
जुदाई जीत जाती है।

5 comments:

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  2. Was waiting 4 d new post :-)but the somebody of the two has to take balancing act. . . And we miss out . .!

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  4. अंकुर जी आप की इस कविता में आज के नाजुक रिश्तों के बारे में बहुत ही सहज तरीके से दर्शाया है जैसा की आज के दौर में रिश्ते बहुत ही नाजुक हो चुके है जरा सी बात में बिखर जाते है आपकी ये कविता बहुत ही अच्छी है आप इस तरह की कविताएं
    शब्दनगरी
    पर भी लिख प्रकाशित कर सकते हैं।

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