Tuesday, September 1, 2015

बेरहम बरखा

उस बाग को खुदवाकर मैंनें
धंस दिया था गहरे तक
ईंट का चूरा
और फिरवाकर रोलर
कई मर्तबा
बना दिया था सपाट, बंजर
उस जमीं को..
जहाँ खिला करती थीं
तेरी चाहतों की कली कभी,
तेरी ख़्वाहिश और नुमाइश
की फुलवारी।



पर इस घिर आई घटा ने
बरखे बदरा ने
फेर दिया पानी
मेरी उन तमाम कोशिशों पे।

लो
फिर उग आई उस ज़मीं पे
तेरी यादों की दूर्वाएं,
टरटराने लगे
बगिया की उजड़ी पड़ी बागड़ में
उन की हुई बातों के 
असंख्य मेंढक
और
लगे हैं निकलने
बारिश में भीगे 
वे बीते लम्हों के
कीट पतंगे।

ये बारिश
भले बुझा रही है सैंकड़ों की तपन
पर मेरी रूह को
कतरा-कतरा जलाते है
इन गिरी हुई बूंदों के नाजुक छींटे।
ये बूंदें
दिल की सुर्ख ज़मीं पे गिर
उड़ा रही हैं बेवशी की सौंधी खुशबू
कर रखा है बेचैन
इन रुसवाईयों के कुकुरमुत्तों ने।

अरे! आना है तो आये न,
पर कमबख़्त ये बारिश
अकेली क्युं नहीं आती....

5 comments:

  1. बरखे बदरा ने
    फेर दिया पानी
    मेरी उन तमाम कोशिशों पे।
    बहुत अच्छी लगी आपकी यह पोस्ट...... कई पंक्तियों से मैंने खुद को भी जुड़ा हुआ पाया...... ऐसा लगा कि हाँ! मैं भी ऐसा ही सोचता हूँ..... बहुत शानदार लिखने के लिए बधाई स्वीकारें :)

    ReplyDelete
  2. यादें कहाँ दफ़न हो पाती हैं...बहुत भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी रचना...

    ReplyDelete
  3. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरुवार 16 जून 2016 को में शामिल किया गया है।

    ReplyDelete
  4. Sukhanubhuti ya dukhanubhuti.. bas dil ke antasthal se nikali...

    ReplyDelete