Saturday, February 14, 2015

कुछ...'बेनाम' सा!!!

(*कविता तो ये भी नहीं है। ये है ख़यालों की अलमारी में रखा, लफ्ज़ों का इक मुरझा चुका गुलदस्ता... हालातों के चलते जिस पर वक़्त की सीड़न पड़ गई थी.. आज मौका पा वो अपनी महक बिखेरने की ख़्वाहिश कर रहा है। आखिर प्रेम दिवस जो है। शायद कभी, इस जैसे ही किसी दिन लिखे गये ये अल्फाज़.. अब मेरे तो किसी काम के नहीं रह गये हैं... इसलिये सोचा कि इन्हें बंद दरख़्तों से निकाल.. आरजूओं का नयाँ आसमां दे दूं। जो मेरे न सही, किसी और के अरमानों को ही पूरा कर सकें तो मुझे खुशी होगी। इस कविता जैसे लगने वाली प्रस्तुति में अल्फाज़ तो तनिक भी नहीं है.. पर अहसासों का अथाह समंदर समाया है। इसे क्या नाम दूं.. सोचना मुश्किल है क्युंकि कोई भी नाम इसे बयाँ कर पाने की ताकत नहीं रखता... ये कुछ है पर क्या, इसका फैसला आप ही करें। मेरे लिये तो ये बस कुछ...... ही है। पाश्चात्य संस्कृति प्रदत्त प्रेम दिवस की शुभकामनाओं के साथ...... प्रस्तुत है कुछ 'बेनाम' सा... )

चंदा को क्या ललकार सकें, टिम-टिम करके लाखों तारे।
सूरज की चमक क्या कम होगी, गर चमक उठे जुगनू सारे।।
माना कि लोग हज़ारों है, जो बिखरे हैं इस महफिल में।
पर बोलो कितने लोगों की, है हस्ती इस नाजुक दिल में।।
क्या कोई कभी भी गिन पाये, जज़्बात उठे कितने मन में,
फिर बोलो कैसे कह दें, कितना प्यार भरा इस धड़कन में।।1।।

दरिया  में  उठती लहरों  की,  भले तादात हज़ारों हो।
पर कितनी लहरें  दरिया की, छू पाती दूर किनारों को।।
यूं तो  हमने  भी जीवन में,  कई रिश्ते खैरात में पाये हैं।
पर बोलो कितने उन रिश्तों में, दिल की दहलीज़ तक आये हैं।।
क्या कोई नाप सके शुचिता, कितनी त्रिवेणी के संगम में,
फिर बोलो कैसे कह दें,  कितना प्यार भरा इस धड़कन में।।2।।

न वादा ये मेरे रिश्ते का, तुमसे न कभी तकरार करुं।
या न झगड़ूं या न उलझूं, या ख़्वाहिश पे न इंकार करुं।।
इन उलझन या विपदाओं से, न प्यार कभी भी झुक पाये।
गर मेघ घटा रवि को घेरे, न उससे दिनकर बुझ जाये।।
श्रद्धा के कितने सुमनांकुर, होते हैं पूजा में अर्पण,
फिर बोलो कैसे कह दे, कितना चाहे तुमको ये धड़कन।।3।।

अंखियों से बहते आंसू न कभी, तय करते दर्द का पैमाना।
मदहोशी कितनी है मधू में, ये जाने कभी न मयखाना।।
है थाह समंदर की कितनी, क्या अब तक जान सका दरिया।
महके कितनी है फुलवारी, क्या बतला सकती है बगिया।।
लाचार सभी हैं अपने में, जो कर पायें खुद का वर्णन,
फिर बोलो कैसे कह दें, कितना चाहे तुमको ये धड़कन।।4।।
फिर बोलो कैसे कह दें...................

-अंश

7 comments:

  1. ये गुलदस्ता बड़ा प्यारा है भैया।

    ReplyDelete
  2. अहा, क्‍या बात है। चंदा को ललकार सके, टिम टिम करके लाखों तारे। बहुत ही सुंदर कविता। पढ़कर गजब का अहसास हुआ।

    ReplyDelete
  3. sundar abhiwyakti...bhini si khushbu bikherta sa..

    ReplyDelete
  4. बहुत ही लाजवाब रचना है ... ये लफ़्ज़ों का खिलता हुआ गुलदस्ता है जो आज भी सबको महका रहा है ... मस्त, एहसास में डूबा एहसास ...

    ReplyDelete
  5. वाह क्या बात है ......सुन्दर प्रस्तुति !

    ReplyDelete
  6. क्या कोई कभी भी गिन पाये, जज़्बात उठे कितने मन में,
    फिर बोलो कैसे कह दें, कितना प्यार भरा इस धड़कन में।।1।।

    क्या बात है यही तो प्यार होता है जब साथ हो तो भी और ना हो तो भी मन तो अनमना होगा ही…………ये भी प्यार का एक अन्दाज़ है।

    ReplyDelete