Sunday, November 5, 2017

विरामचिन्ह !!!

ठहराव है वहीं
हो रहा जहाँ कहीं भी प्रवाह है।
सापेक्षता का सिद्धांत
बताता है हमें
गति और स्थिति का
यही विरोधाभास।।

और
इस परस्पर विरोध की 
निर्भरता को समझे बगैर
हम बस 
खुद की ही नज़र को
सत्य ठहराने पर अड़े है...
बिना देखे-बिना जाने
कि हम खुद कहां खड़े हैं।
क्योंकि 
असल में हमारी जगह ही
तय करती है
गति और स्थिति के सारे नियम।।

ये कविताएं, ये गीत-संगीत
नृत्य, नाट्य
और कला की सारी विधाएं
जितना अर्थ अपने प्रवाह में रखती हैं
उतने ही मायने होते हैं
इनके ठहराव में।

जीवन का विज्ञान यहीं आकर
कला के कलेवर में बदलकर
लेता है नया रूप।
हम इसकी गति में
तलाशते हैं 'अर्थ'
पर वे तो ठहरे हुए हैं वहीं
किसी खास विरामचिन्ह के
 ईर्द-गिर्द कहीं।।

सुनो!
जहां से बदला था वाक्य
शुरु हुआ था नया पैराग्राफ...
उस ठहराव के दरमियां ही कहीं
रुके पड़े हैं जीवन के मायने सारे।
और उस खास 'बिन्दु' को निकाल
कर बैठेंगे हम, 
इस कविता को व्यर्थ।

आखिर में,
इस कही हुई कहानी का 
सार बस यही है....कि,
मेरे जीवन की कविता का
अल्पविराम थे तुम।
और उस विरामचिन्ह
में ही छुपा है,
इस कविता का सारा अर्थ।।