बादलों के टूटने से
पा गई ये धरा
'जल'
रात के इस बीतने से
पा गई ये सृष्टि
'कल'।
डूबकर सूरज ने दे दी
निशा की शीतल विभा
चोट खा माटी ने जन्मी
फसल की ये हरितमा।।
छूटते जो अंगुलियों से
हर्फ, जब भी कागज़ों पर...
बन जाते तब वे भी
जैसे
काव्य का कोई हार मानो।
रूठते जब अपने कोई
और,
देते जख़्म दिल पर
जग रीत का अहसास
इन रिश्तों की टूटन से
ही जानो।।
ये रूठना, ये टूटना
ये छूटना, ये बीतना
है नहीं ये संकेत
इस जगत में बिखराव का,
डूबा हुआ सूरज
नहीं,
निष्कर्ष है
ठहराव का।
विरह
का हर धुम्र
रखता आग अंदर मिलन की।
जो विसर्जन लगता तुम्हें
वो शुरुआत
एक और सृजन की।
तुम थे कभी,
बदला क्या इस परिवेश में।
था लगा ये
कुछ पलों को
मिटना रहा अब शेष है।।
पर,
वक्त की इस आंच पर
होले-होले
हम भी पक लिये।
टूटकर,
जुड़ने के किस्सों में
लो
हम भी गढ़ लिये।।
इस हुनर का ऐलान अब
हम कर रहे इस जहाँ में
शीशा नहीं हूँ मैं कोई
जो टूटकर है बिखरता।
'अंकुर' हूँ मैं
जो बीज की टूटन
से ही है संवरता।
'अंकुर' हूँ मैं
जो चोट पाकर
ही है अक्सर निखरता।।