अपने ख़याली घोड़ों को
जब दौड़ाता हूँ
उस गुजरे अतीत के सफ़र पर,
जहाँ नाजुक अहसासों के शलभ
सहलाते हैं...
खुश्क़ हो चुके
ज़िंदगी के कपोलों को।
इस गुज़रगाह में
मिलते हैं वे मुकाम
जब मिले थे हम
जब खिले थे हम
और
बदली थीं आपस में
हर्ष-विषाद से भरी
अपनी रजामंदियों की
पोटली।
संयोग-वियोग की
नियति को
भलीप्रकार जानते हुए
था यकीन तब भी,
इकरोज़ हो जाने वाले
बिखराव
का भी अपने।
लेकिन,
संबंधों के दरमियां होने वाले
इजहार-इकरार और इंतज़ार
जैसी घटनाओं के समान ही
लगता था मुझे
कि होते होंगे कुछ बिछोह के भी संस्कार...
होंगी कुछ नियमावली, औपचारिकताएं,
विधि, प्रथा, व्यंजना या रस्मो-रिवाज़
जिनमें होता होगा
नजदीकियों की ही तरह
दूरियों का भी करार।
उस संस्कार को
आज की संस्कृति ने।
हाँ...उसी संस्कृति ने
जिसका हिस्सा होते हुए भी हम
उसकी नीतियों से ऐतराज़ किया करते थे।
और इसलिये,
इस अति ज़ाहिर होने वाले वक्त में भी
गोपनीय रखा था अपना 'प्रेम'।
पर देखो न
उस विच्छेद की रस्म को
निभाये बगैर ही
पसर गईं रिश्ते में
फासलों की दरारें।
कहो न!
भला देखा है कहीं
ऐसा
बिना 'ब्रेक-अप' का अलगाव।