Monday, October 19, 2015

सृजन का सच

घनघोर असंतुष्टि,
अतृप्ति 
और महसूस किये
किसी अव्यक्त दर्द से
पैदा होते हैं
कुछ बेतरतीब से शब्द,
जो कुछ ऊटपटांग से वाक्यों का
लिबास पहन बन जाते हैं
महसूसियत के फरमान।

और दिखने लगते हैं
कुछ-कुछ कविता जैसे
जिन्हें पढ़-लिख, सुन-सुना
करने लगता हूँ मैं गुमान
खुद के शायर होने का,
और भ्रम के किसी 
खयाली आकाश में
हो जाता हूँ तृप्त
कागज़ों से अपने ज़ख्म पोंछकर।

किंतु ये सृजन का भ्रम
बस चंद लम्हों के लिये ही
मेरी तृष्णा को दुलारता है
और फिर यथार्थ का कड़वा सच
कर देता है मेरे ज़ख्मों को हरा
जिससे प्रेरित हो 
कर बैठता हूँ मैं
पुनः एक और 
'सृजन'

अतीत के असंख्य अहसासों
और उनसे पैदा
इन फजूल के अल्फाजों की
भूलभूलैया में
उलझा हुआ
मैं अपना वर्तमान नहीं
सुलझा पाता।

उन ज़ंग लगे जज़्बात से
भले हो रहा है
'सृजन'।
पर
अवरुद्ध इसने कर दिया
स्वयं का निर्माण
अब।

गौर से देखो
तो जरा!
असल में
इस बंजर भूमि पे पड़े
'अंकुर' से
नहीं निकलती कोई
सृजन की पौध।