तप्त दुपहरी के बीच
ज्यों होती है तरुओं की
सुनहरी छांव।
भटका राही
लंबी दूरी तय कर
पा लेवे ज्यों अपना गांव।।
अथाह मरुस्थल में हो
ज्यों
भरा नीर का कुण्ड।
अथवा
किसी अनजान सफर पर
मिले अपनो का झुण्ड।।
ये सब वे चीज़ें हैं
जिनका लगता न
कभी भी मोल
चमक नहीं, चाहत ही बस
तय करती इनका तौल।
बीच समंदर मिले थे तुम
बनकर के कोई द्वीप।
था संयोग अजब ये वैसा
मानो स्वाति में मिला
बूंद को सीप।
फिर निष्कंट राह में जाने
आयी कैसी ये विष बेल।
उड़ा ले गई मुझसे मेरा सब
क्या अजब ये कुदरत का खेल।।
कभी धूप-कभी छाया
क्या ऐसी ही जीवन की रीत।
क्युं वीराने में खो जाते
कभी महफिलों में गूंजे
जो गीत।
हुई उपेक्षा उस अंचल में,
उम्मीद के थे जहाँ
खड़े किले।
मिला अंधेरा उन गलियों में
जहां प्रेम के
दिये जलें।।
दूर सभी हों हसरत मेरी
हो न संग की अब ख्वाहिश।
वीतराग होकर वसुधा पे
न चाहूं कोई फरमाईश।।
हो उदार-निरपेक्ष वृत्ति बस
करुं स्वयं का आलोचन।
दिखे दोष अन्यत्र कहीं न
यही एक बस आलापन।।
तुम थे, तो ही सुख था
मृगतृष्णा हो मेरी ये दूर।
थमे खोज जगविषयों की अब
न होना ही चाहूँ
मशहूर।।
थमे गीत-थमे हर कविता
अव्यक्त रहूं निष्चेष्ट सदा।
स्वस्वरूप में थिर होकर
लौटूं न जगत में कहीं-कदा।।
लौटूं न जगत में कहीं-कदा.....