Friday, October 24, 2014

खुरचन

अक्सर फ़िजूलखर्चियां
ख़त्म कर देती हैं
बेशकीमती चीज़ों की
अहमियत को।

और 
ये फ़जूलखर्चियां
यूंही ज़ाया कर देती हैं
बेहद खास चीज़ों को
जब वो
अपने फटे-पुराने
सड़े-गले रूप में 
मिलती है किसी को
उतरन बनकर
या किसी थाली में
बची हुई खुरचन बनकर।

अपने तमाम
वक्त, होश और जोश-ओ खरोश
से मैंने खर्च दिये हैं
अपने वे तमाम महीन जज़्बात
जिन्हें पाने की तमन्ना में
तुम मेरे दिल पर अर्जियां दे रही हो।

बेशक हो जाओगी तुम
मेरी ज़िंदगी का हिस्सा
पर बरहमिश,
इक हिस्सा ही रहोगी
न बन सकोगी
ज़िंदगी मेरी।
क्युंकि
यौवन के विहान में
जमकर की हैं मैंने भी
अहसास-ए-इश्क़
की फ़िजूलखर्चियां।

अब इस दोपहर
में तुम आये हो
तो तुम्हें झूठन के सिवा
और क्या मिल सकता है?
लो खरोंच लो!
तुम्हारे सामने पड़ी है
मेरे दिल की तश्तरी
और मिटा लो,
गर मिटा सको
तुम इससे क्षुधा अपनी।

जज़्बातों की बेशुमार
बरबादी और
अंधखर्चियों से
ये खजाना अब
तहखाने में बदल गया है।
और अब
दस्तक के लिये 
तुमने जो दर चुना है
वो दर तुम्हें
न दे सकता है कुछ भी.......
'चाह' की उतरन के सिवा,
'इश्क़' की खुरचन के सिवा।।

Friday, October 10, 2014

नासूर ज़ख्म

गर ज्वालामुखी से

निकल लावा जमीन तक पहुंचे
तो जमीं के नित स्पर्श से पा जाता है
वो मृदुता
पर रह जाये वो
यदि तह के नीचे ही कहीं
तो धधकता है शोला बनकर।


ये ज़मीं पे बिखरे
शैल,
गर अपरदित होकर
बिखरे जहाँ-तहाँ 
तो पा जाते हैं
वो ऋजुता,
पर उतर जाये गहरे
यदि ज़मीं के अंतस में
तो हो जाते हैं ठोस वे
अपनी काया बदलकर।

कुछ ऐसे ही
वदन के ज़ख्मों पर
पड़ जाये पपड़ी
रक्त का प्रवाह ठीक हुए बगेर,
तो हो जाते हैं
वो नासूर
हमें रह-रहकर तड़पाने के लिये।


जज़्बातों के छले जाने से
उभरी है जो पीड़ा,
गर निकल जाती वो
चंद अश्क़ों के बहाने से
तो न रूह में शोले जलते
न ज़ख्म नासूर बनते
और न घटती
मानवीय संवेदनाएँ मेरी।

पर ऐसा न हो सका
अब जो है
वो, वो नहीं है
जिससे तुम्हें प्यार था
जज़्बातों के मृदु शैल
कायांतरित हो
बन चुके है इक ठोस धातु।
और इनकी लगातार सड़न ने
ज़ख्मों को भी नासूर कर दिया...
सुनो!
अब मेरी खैर-खबर पूछ
उन ज़ख्मों पे पड़ी पपड़ी मत
उखाड़ा करो।