अक्सर फ़िजूलखर्चियां
ख़त्म कर देती हैं
बेशकीमती चीज़ों की
अहमियत को।
और
ये फ़जूलखर्चियां
यूंही ज़ाया कर देती हैं
बेहद खास चीज़ों को
जब वो
अपने फटे-पुराने
सड़े-गले रूप में
मिलती है किसी को
उतरन बनकर
या किसी थाली में
बची हुई खुरचन बनकर।
अपने तमाम
वक्त, होश और जोश-ओ खरोश
से मैंने खर्च दिये हैं
अपने वे तमाम महीन जज़्बात
जिन्हें पाने की तमन्ना में
तुम मेरे दिल पर अर्जियां दे रही हो।
मेरी ज़िंदगी का हिस्सा
पर बरहमिश,
इक हिस्सा ही रहोगी
न बन सकोगी
ज़िंदगी मेरी।
क्युंकि
यौवन के विहान में
जमकर की हैं मैंने भी
अहसास-ए-इश्क़
की फ़िजूलखर्चियां।
अब इस दोपहर
में तुम आये हो
तो तुम्हें झूठन के सिवा
और क्या मिल सकता है?
लो खरोंच लो!
तुम्हारे सामने पड़ी है
मेरे दिल की तश्तरी
और मिटा लो,
गर मिटा सको
तुम इससे क्षुधा अपनी।
जज़्बातों की बेशुमार
बरबादी और
अंधखर्चियों से
ये खजाना अब
तहखाने में बदल गया है।
और अब
दस्तक के लिये
तुमने जो दर चुना है
वो दर तुम्हें
न दे सकता है कुछ भी.......
'चाह' की उतरन के सिवा,
'इश्क़' की खुरचन के सिवा।।